________________ जैन धर्म एवं दर्शन-269 जैन-तत्त्वमीमांसा -121 है। यदि मात्र आकाश हो, किन्तु ईथर न हो, तो कोई गति सम्भव नहीं होगी। किसी भी प्रकार की गति के लिए कोई-न-कोई माध्यम आवश्यक है, जैसे मछली को तैरने के लिए जल / इसी गति के माध्यम को विज्ञान ईथर और जैन-दर्शन धर्म-द्रव्य कहता है। साथ ही, हम यह भी देखते हैं कि विश्व में केवल गति ही नहीं है, अपितु स्थिति भी है। जिस प्रकार गति का नियामक-तत्त्व आवश्यक है, उसी प्रकार से स्थिति का भी नियामक-तत्त्व आवश्यक है। विज्ञान इसे गुरुत्वाकर्षण के नाम से जानता है, जैन-दर्शन उसे ही अधर्म-द्रव्य कहता है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में अधर्म-द्रव्य को विश्व की स्थिति के लिए आवश्यक माना जाता है। यदि अधर्म-द्रव्य न हो और केवल अनन्त आकाश और गति ही हो, तो समस्त पुद्गल-पिण्ड अनन्त आकाश में छितर जाएंगे और विश्व-व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। अधर्म-द्रव्य एक नियामक-शक्ति है, जो एक स्थिर विश्व के लिए आवश्यक है। इसके अभाव में एक ऐसी अव्यवस्था होगी कि विश्व विश्व ही न रह जायेगा। आज जो आकाशीय पिण्ड अपने-अपने यात्रा पथ में अवस्थित रहते हैं-जैनों के अनुसार, उसका कारण अधर्म-द्रव्य है, तो विज्ञान के अनुसार उसका कारण गुरुत्वाकर्षण है। इसी प्रकार, आकाश की सत्ता भी स्वीकार करना आवश्यक है, * क्योंकि आकाश के अभाव में अन्य द्रव्य किसमें रहेंगे? जैनों के अनुसार, आकाश मात्र एक शून्यता नहीं, अपितु वास्तविकता है। क्योंकि लोक आकाश में ही अवस्थित है, अतः जैनाचार्यों ने आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश- ऐसे भागों की कल्पना की। लोक जिसमें अवस्थित है, वही लोकाकाश है। इसी अनन्त आकाश के एक भाग-विशेष अर्थात् लोकाकाश में अवस्थित होने के कारण लोक को सीमित कहा जाता है, किन्तु उसकी यह सीमितता आकाश की अनन्तता की अपेक्षा से ही है। वैसे, जैन-आचार्यों ने लोक का परिणाम चौदह राजू माना है, जो कि वैज्ञानिकों के प्रकाशवर्ष के समान एक प्रकार का माप-विशेष है। यह लोक नीचे चौड़ा, मध्य में पतला, पुनः ऊपरी भाग के मध्य में चौड़ा व अन्त में पतला है। इसके