________________ जैन धर्म एवं दर्शन-270 जैन-तत्त्वमीमांसा -122 . आकार की तुलना कमर पर हाथ रखे खड़े हुए पुरुष के आकार से की जाती है। इस लोक के अधोभाग में सात नरकों की अवस्थिति मानी गयी है- प्रथम नरक से ऊपर और मध्यलोक से नीचे बीच में भवनपति देवों का आवास है। इस लोक के मध्य भाग में मनुष्यों एवं तिर्यंचों का आवास है, इसे मध्यलोक या तिर्यक-लोक कहते हैं। तिर्यक-लोक के मध्य में मेरु–पर्वत है, उसके आस-पास का समुद्रपर्यन्त भू–भाग जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाता है, यह गोलाकार है। उसे वलयाकार लवण-समुद्र घेरे हुए है। लवण-समुद्र को वलयाकार में घेरे हुए धातकी-खण्ड है। उसको वलयाकार में घेरे हुए कालोदधि नामक समुद्र है। उसको पुनः वलयाकार में घेरे हुए पुष्कर-द्वीप है। उसके आगे पुनः वलयाकार में पुष्कर-समुद्र है। इसके पश्चात्, अनुक्रम से एक के बाद एक वलयाकार में एक-दूसरे को घेरे हुए असंख्यात् द्वीप एवं समुद्र हैं। ज्ञातव्य है कि हिन्दू-परम्परा में मात्र सात द्वीपों एवं समुद्रों की कल्पना है, जिसकी जैनआगमों में आलोचना की गई है, किन्तु जहाँ तकं मानव-जाति का प्रश्न है, वह केवल जम्बूद्वीप, धातकी-खण्ड और पुष्करावर्त्त-द्वीप के अर्द्धभाग में ही उपलब्ध होती है, उसके आगे मानव-जाति का अभाव है। इस मध्यलोक या भूलोक से ऊपर आकाश में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारों के आवास या विमान हैं। यह क्षेत्र ज्योतिषिक-देव-क्षेत्र कहा जाता है। ये सभी सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि मेरुपर्वत को केन्द्र बनाकर प्रदक्षिणा करते हैं। इस क्षेत्र के ऊपर श्वेताम्बर-मान्यतानुसार क्रमशः बारह अथवा दिगम्बर-मतानुसार सोलह स्वर्ग या देवलोक हैं। उनके ऊपर क्रमशः नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर-विमान हैं। लोक के ऊपरी अन्तिम भाग को सिद्धक्षेत्र या लोकाग्र कहते हैं, यहाँ सिद्धों या मुक्त आत्माओं का निवास है। यद्यपि सभी धर्म-परम्पराओं में भूलोक के नीचे नरक या पाताल-लोक और ऊपर स्वर्ग की कल्पना समान रूप से पायी जाती है, किन्तु उनकी संख्या आदि के प्रश्न पर विभिन्न परम्पराओं में मतभेद देखा जाता है। खगोल एवं भूगोल का जैनों का यह विवरण आधुनिक विज्ञान से कितना संगत अथवा असंगत है? यह निष्कर्ष निकाल पाना सहज नहीं है। इस सम्बन्ध में आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी ने संग्रहणीरत्न-प्रकरण की भूमिका