________________ जैन धर्म एवं दर्शन-268 जैन-तत्त्वमीमांसा-120 समझते हैं, वे वस्तुतः कितने पोले हैं। अतः, सूक्ष्म अवगाहन- शक्ति के कारण यह संभव है कि एक ही आकाश-प्रदेश में अनन्त परमाणु भी समाहित हो जाएं। धर्म-द्रव्य एवं अधर्म-द्रव्य की जैन-अवधारणा भी आज वैज्ञानिक-सन्दर्भ में अपनी व्याख्याओं की अपेक्षाएँ रखती हैं। जैन-परम्परा में धर्मास्तिकाय को न केवल एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है, अपितु / गर्मास्तिकाय के अभाव में जड़ व चेतन- किसी की भी गति संभव नहीं होगी- ऐसा भी माना गया है। यद्यपि जैन-दर्शन में धर्मास्तिकाय को अमूर्त-द्रव्य कहा गया है, किन्तु अमूर्त होते हुए भी यह विश्व का महत्वपूर्ण घटक है। यदि विश्व में धर्म-द्रव्य एवं अधर्म-द्रव्य, जिन्हें दूसरे शब्दों में हम गति व स्थिति के नियामक तत्त्व कह सकते हैं, न होंगे, तो विश्व का अस्तित्व ही सम्भव नहीं होगा, क्योंकि जहाँ अधर्म-द्रव्य विश्व की वस्तुओं की स्थिति को सम्भव बताता है और पुदगल-पिण्डों को अनन्त आकाश में बिखरने से रोकता है, वहीं धर्म-द्रव्य उनकी गति को सम्भव बनाता है। गति एवं स्थिति- यही विश्व-व्यवस्था का मूल आधार है। यदि विश्व में गति एवं स्थिति संभव न हो, तो विश्व नहीं हो सकता है। गति के नियमन के लिये स्थिति एवं स्थिति की जड़ता को तोड़ने के लिए गति आवश्यक है। यद्यपि जड़ व चेतन में स्वयं गति करने एवं स्थित रहने की क्षमता है, किन्तु उनकी यह क्षमता कार्य के रूप में तभी परिणत होगी, जब विश्व में गति और स्थिति के नियामक- तत्त्व या कोई माध्यम हो। जैन-दर्शन के धर्म-द्रव्य व अधर्म-द्रव्य को आज विज्ञान की भाषा में ईथर एवं गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि धर्म-द्रव्य नाम की वस्तु है, तो उसके अस्तित्व को कैसे जाना जायेगा? वैज्ञानिकों ने जो ईथर की कल्पना की है, उसे हम जैन धर्म की भाषा में धर्मद्रव्य कहते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, ईथर को स्वीकार नहीं करते हैं, तो प्रश्न उठता है कि प्रकाश-किरणों की यात्रा का माध्यम क्या है? यदि प्रकाश-किरणें यथार्थ में किरणें हैं, तो उसका परावर्तन किसी माध्यम से ही सम्भव होगा और जिसमें ये प्रकाश-किरणें परावर्तित होती हैं, वह भौतिक पिण्ड नहीं, अपितु ईश्वर ही