________________ जैन धर्म एवं दर्शन-250 जैन - तत्त्वमीमांसा-102 है, जैसे-पंचांश स्निग्धत्व तीन अंश स्निग्धत्व को अपने रूप में परिणत करता है, अर्थात् तीन अंश स्निग्धत्व भी पाँच अंश स्निग्धत्व के सम्बन्ध से पाँच अंश परिणत हो जाता है। इसी प्रकार, पाँच अंश स्निग्धत्व तीन अंश रूक्षत्व को भी स्वस्वरूप में मिला लेता है, अर्थात् रूक्षत्व स्निग्धत्व में बदल जाता है। रूक्षत्व अधिक हो, तो वह अपने से कम स्निग्धत्व को अपने रूप का बना लेता है। मेरे विचार में यहाँ यह भी सम्भव है कि दोनों के मिलन से अंशों की अपेक्षा कोई तीसरी अवस्था भी बन सकती है। जैन-दर्शन में परमाणु जैनदर्शन में परमाणु को पुद्गल का सबसे छोटा अविभागी अंश माना गया है। यथा 'जंदलं अविभागी तं परमाणु वियाणेहि', अर्थात् जो द्रव्य अविभागी है, उसको निश्चय से परमाणु जानो। इसी तरह की परिभाषा डेमोक्रिट्स ने भी दी है, जिसका उल्लेख पूर्व में कर आये हैं। परमाणु का लक्षण स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं अंतादि अंतमज्झं अंतंतं व इंदिए गेज्झं / जं अविभागी दव्वं तं परमाणुं पसंसंति / / - नियमसार 29 अर्थात्, परमाणु का वही आदि, वही अंत तथा वही मध्य होता है। वह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता। वह सर्वथा अविभागी है- उसके टुकड़े नहीं किये जा सकते। ऐसे अविभागी द्रव्य को परमाणु कहते हैं। परमाणु सत् है, अतः अविनाशी है, साथ ही उत्पाद-व्यय-धर्मा, अर्थात् रासायनिक-स्वभाव वाला भी है। इस तथ्य को वैज्ञानिकों ने भी माना है। वे भी परमाणु को रासायनिक परिवर्तन-क्रिया में भाग लेने योग्य परिणमनशील मानते हैं। परमाणु जब अकेला-असम्बद्ध होता है, तब उसमें प्रतिक्षण स्वभावानुकूल पर्यायें या अवस्थाएँ होती रहती हैं तथा जब वह अन्य परमाणु से सम्बद्ध होकर स्कंध की दशारूप में होता है, तब उसमें विभाव या स्वभावेतर पर्यायें भी द्रवित होती रहती हैं। इसी कारण ही उसे द्रव्य कहा जाता है। द्रव्य की व्युत्पत्ति का सम्यक् अर्थ यही है कि जो द्रवित अर्थात् परिवर्तित हो। परमाणु भी इसका अपवाद नहीं है।