________________ जैन धर्म एवं दर्शन-251 जैन- तत्त्वमीमांसा-103 परमाणु की उत्पत्ति यहां परमाणु की उत्पत्ति का तात्पर्य उसका अस्तित्व में आने से नहीं, क्योंकि परमाणु सत्-स्वरूप है। सत् की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश। सत् तो सदाकाल अनादि-अनंत है, अतः वह अविनाशी है। यहां परमाणु की उत्पत्ति का तात्पर्य मिले हुए परमाणुओं के समूह से या स्कंधों से विखण्डित होकर परमाणु का आविर्भाव है। वस्तुतः, परमाणुओं से स्कन्ध और स्कन्ध से परमाणु आविर्भूत होते रहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, भेदादणुः, अर्थात् भेद से अणु प्रकट होता है, किन्तु यह भेद की प्रक्रिया तब तक होनी चाहिए, जब पुद्गल स्कंध एकप्रदेशी अंतिम इकाई के रूप में अविभाज्य न हो जाये। यह अविभाज्य परमाणु किसी भी इंद्रिय या अणुवीक्षण-यंत्रादि से भी ग्राह्य (दृष्टिगोचर) नहीं होता है। जैनदर्शन में इसे केवल सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय माना गया है। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए प्रोफेसर जान पिल्ले लिखते हैं- वैज्ञानिक पहले अणु को ही पुद्गल का सबसे छोटा, अभेद्य अंश मानते थे, परन्तु जब उसके भी विभाग होने लगे, तो उन्होंने अपनी धारणा बदल दी और अणु को मालीक्यूल अर्थात् सूक्ष्म स्कन्ध नाम दिया तथा परमाणु को एटम नाम दिया, किन्तु अब तो परमाणु के भी न्यूट्रान, प्रोटान और इलेक्ट्रान जैसे भेद कर दिये गये हैं, जिससे सिद्ध होता है कि आधुनिक वैज्ञानिकों का परमाणु अविभागी नहीं है। जैन-दर्शन तो ऐसे परमाणु को भी सूक्ष्म स्कन्ध ही कहता है। पुद्गल के समान परमाणु में भी वर्ण, रस, गंध, एक रस और मात्र दो स्पर्श- शीत और उष्ण में से कोई एक तथा स्निग्ध और रूक्ष में से कोई एक पाये जाते हैं। . जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने शब्द, अंधकार, प्रकाश, छाया, गर्मी आदि को पुद्गल-द्रव्य का ही पर्याय माना है। इस दृष्टि से जैनदर्शन का पुद्गल-विचार आधुनिक विज्ञान के बहुत अधिक निकट है। - जैनदर्शन की ही ऐसी अनेक मान्यताएं हैं, जो कुछ वर्षों तक अवैज्ञानिक व पूर्णतः काल्पनिक लगती थीं, किन्तु आज विज्ञान से प्रमाणित