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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-249 जैन-तत्त्वमीमांसा-101 एक में अत्यल्प होता है और दूसरे में अत्यधिक / तरतमतावाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व-परिणामों में जो परिणाम सबसे निकृष्ट अर्थात् अविभाज्य हो, उसे जघन्य अंश कहते हैं। जघन्य को छोड़कर शेष सभी जघन्येतर कहे जाते हैं। जघन्येतर में मध्यम और उत्कृष्ट संख्या आ जाती है। सबसे अधिक स्निग्धत्व परिणाम उत्कृष्ट है और जघन्य तथा उत्कृष्ट के बीच के सभी परिणाम मध्यम हैं। जघन्य स्निग्धत्व की अपेक्षा उत्कृष्ट स्निग्धत्व अनन्तानन्त गुना अधिक होने से यदि जघन्य स्निग्धत्व को एक अंश कहा जाए, तो उत्कृष्ट स्निग्धत्व को अनन्तानन्त अंश परिमित मानना चाहिए। दो, तीन यावत् संख्यात्, असंख्यात् और अनन्त से एक कम उत्कृष्ट तक के सभी अंश मध्यमं हैं। यहाँ सदृश का अर्थ है- स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध होना और विसदृश का अर्थ है- स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होना। एक अंश जघन्य है और उससे एक अधिक अर्थात् दो अंश एकाधिक हैं। दो अंश अधिकं हों तब द्वयधिक और तीन अंश अधिक हों तब त्रयोधिक / इसी तरह, चार अंश अधिक होने पर चतुरधिक यावत् अनन्तानन्त अधिक कहलाता है। सम अर्थात् दोनों के अंशों की संख्या समान हो, तब वह सम हैं। दो अंश जघन्येतर का सम जघन्येतर दो अंश है, दो अंश जघन्येतर का एकाधिक जघन्येतर तीन अंश है, दो अंश जघन्येतर का द्वयधिक जघन्येतर चार अंश है, दो अंश जघन्येतर का त्र्याधिक जघन्येतर पाँच अंश है और चतुरधिक जघन्येतर छ: अंश है। इसी प्रकार, तीन आदि से अनन्तांश जघन्येतर तक के सम, एकाधिक, द्वयधिक और ज्यादि जघन्येतर अंश होते हैं। - यहाँ यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि समांश स्थल में सदृश बन्ध तो होता ही नहीं, विसदृश होता है, जैसे दो अंश स्निग्ध का दो अंश रूक्ष के साथ या तीन अंश स्निग्ध का तीन अंश रूक्ष के साथ। ऐसे स्थल में कोई एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत कर लेता है, अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कभी स्निग्धत्व रूक्षत्व को स्निग्धत्व में बदल देता है और कभी रूक्षत्व स्निग्धत्व को रूक्षत्व में बदल देता है, परन्तु अधिकांश स्थल में अधिकांश ही हीनांश को अपने स्वरूप में बदल सकता
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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