________________ जैन धर्म एवं दर्शन-247 जैन-तत्त्वमीमांसा-99 होना चाहिए। पं. सुखलालजी लिखते हैं श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों परम्पराओं में बन्ध-सम्बन्धी प्रस्तुत तीनों सूत्रों में पाठभेद नहीं है, पर अर्थभेद अवश्य है। अर्थभेद की दृष्टि से ये तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं 1. जघन्यगुण परमाणु एक अंश वाला हो, तब बन्ध का होना या न होना, 2. 'आदि' पद से तीन आदि अंश लिए जाए या नहीं और 3. बन्धविधान केवल सदृश अवयवों के लिए माना जाए अथवा नहीं। इस सम्बन्ध में पंडितजी आगे लिखते हैं 1. तत्त्वार्थभाष्य और सिद्धसेनगणि की उसकी वृत्ति के अनुसार, जब दोनों परमाणु जघन्य गुणवाले हों, तभी उनके बन्ध का निषेध है, अर्थात् एक परमाणु जघन्यगुण हो और दूसरा जघन्यगुण न हो, तभी उनका बन्ध होता है, परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुसार, एक जघन्यगुण परमाणु का दूसरे अजघन्यगुण परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होता। ... 2. तत्त्वार्थभाष्य और उसकी वृत्ति के अनुसार, सूत्र 35 के 'आदि पद का तीन आदि अंश अर्थ लिया जाता है, अतएव उसमें किसी एक परमाणु से दूसरे परमाणु में स्निग्धत्व या रूक्षत्व के अंश दो, तीन, चार तथा बढ़ते-बढ़ते संख्यात्, असंख्यात अनन्त अधिक होने पर भी बन्ध माना जाता है; केवल एक अंश अधिक होने पर ही बन्ध नहीं माना जाता है, परन्तु सभी दिगम्बर–व्याख्याओं के अनुसार- केवल दो अंश अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है, अर्थात् एक अंश की तरह तीन, चार, संख्यात्, असंख्यात् अनन्त अंश अधिक होने पर बन्ध नहीं माना जाता। ..3. भाष्य और वृत्ति के अनुसार, दो, तीन आदि अंशों के अधिक होने पर बन्ध का विधान सदृश अवयवों पर ही लागू होता है, विसदृश पर नहीं, परन्तु दिगम्बर व्याख्याओं में वह विधान सदृश की भाँति विसदृश परमाणुओं के बन्ध पर भी लागू होता है। - इस अर्थभेद के कारण दोनों परम्पराओं में बन्ध विषयक जो विधि-निषेध फलित होता है, वह इस प्रकार है