________________ जैन धर्म एवं दर्शन-246 जैन- तत्त्वमीमांसा-98 (सघातभेदेभ्यःउत्पद्यन्ते-तत्त्वार्थ 5/26) | संघात का तात्पर्य एकत्रित होन और भेद का तात्पर्य टूटना या अलग-अलग होना है। किस प्रकार के परमाणुओं के परस्पर मिलने से स्कंध आदि की रचना होती है- इस प्रश्न पर भी जैनाचार्यों ने विस्तृत चर्चा की है। पौदगलिक-स्कन्ध की उत्पत्ति मात्र उसके अवयवभूत परमाणओ के पारस्परिक-संयोग से नहीं होती है। इसके लिए उनकी कुछ विशिष्ट योग्यताएं भी अपेक्षित होती हैं। पारस्परिक-संयोग के लिए उनमें स्निग्धत्व (चिकनापन), रूक्षत्व (रूखापन) आदि गुणों का होना भी आवश्यक है। जब स्निग्ध और रूक्ष परमाणु या स्कन्ध आपस में मिलते हैं, तब उनका बन्ध (एकत्वपरिणाम) होता है, इसी बन्ध से द्वयणुक आदि स्कन्ध बनते हैं। स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं या स्कन्धों का संयोग सदृश और विसदृश- दो प्रकार का होता है। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध सदृश बन्ध है। स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध विसदृशबन्ध है। .. तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, जिन परमाणुओं में स्निग्धत्व या रूक्षत्व का अंश जघन्य अर्थात् न्यूनतम हो, उन जघन्य गुण (डिग्री) वाले परमाणुओं का पारस्परिक- बन्ध नहीं होता है। इससे यह भी फलित होता है कि मध्यम और उत्कृष्ट-संख्यक अंशों वाले स्निग्ध एवं रूक्ष- सभी परमाणुओं या स्कन्धों का पारस्परिक-बन्ध हो सकता है, परन्तु इसमें भी अपवाद है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, समान अंशों वाले स्निग्ध तथा रूक्ष परमाणुओं का स्कन्ध नहीं बनता। इस निषेध का फलितार्थ यह भी है कि असमान गुण वाले सदृश अवयवी स्कन्धों का बन्ध होता है। इस फलितार्थ का संकोच करके तत्त्वार्थसूत्र (5/35) में सदृश असमान अंशों की बन्धोपयोगी मर्यादा नियत की गई है। तदनुसार, असमान अंशवाले सदृश अवयवों में भी जबएक अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व दो अंश, तीन अंश, चार अंश आदि अधिक हो, तभी उन दो सदृश अवयवों का बन्ध होता है, इसलिए यदि एक अवयव के स्निग्धत्व या रूक्षत्व की अपेक्षा दूसरे अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व केवल एक अंश अधिक हो, तो भी उन दो सदृश अवयवों का बन्ध नहीं होता है। उनमें कम-से-कम दो या दो से अधिक गुणों का अंतर