________________ जैन धर्म एवं दर्शन-245 जैन-तत्त्वमीमांसा-97 मिलने में असमर्थ होते हैं, जैसे–पत्थर / 2. स्थूल- जो स्कंध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं आपस में मिल जाते / हैं, वे स्थूल स्कंध कहे जाते हैं। इसके अन्तर्गत विश्व के तरल द्रव्य आते हैं, जैसे-पानी, तेल आदि। स्थूल-स्थूल- जो पुद्गल-स्कन्ध छिन्न-भिन्न नहीं किये जा सकते हों, अथवा जिनका ग्रहण या लाना ले जाना संभव नहीं हो, किन्तु जो चक्षु इन्द्रिय के अनुभूति के विषय हों, वे स्थूल-सूक्ष्म या बादर-सूक्ष्म कहे जाते हैं, जैसे-प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि। सूक्ष्म-स्थूल- वे विषय, जो दिखाई नहीं देते हैं, किन्तु हमारी - ऐन्द्रिक- अनुभूति के विषय बनते हैं, सूक्ष्म-स्थूल हैं, जैसे- सुगन्ध, शब्द आदि। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विद्युत्-धारा का प्रवाह और अनुभूत अदृश्य गैस भी इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। जैन-आचार्यों ने ध्वनि, तरंग आदि को भी इसी वर्ग के अन्तर्गत माना है। वर्तमान युग में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा चित्र आदि का सम्प्रेषण किया जाता है, उसे भी हम इसी वर्ग के अन्तर्गत रख सकते हैं। , 5. सूक्ष्म- जो स्कंध इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते हों, : वे इस वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। जैनाचार्यों ने कर्मवर्गणा (जो जीवों के बंधन का कारण है) मनोवर्गणा, भाषावर्गणा आदि को इसी वर्ग . में माना है। 6... अति सूक्ष्म- द्वयणुक आदि अत्यन्त छोटे स्कंध अति सूक्ष्म माने गये हैं। स्कंध के निर्माण की प्रक्रिया . स्कंध की रचना दो प्रकार से होती है- एक ओर बड़े-बड़े स्कंधों के टूटने से या छोटे-छोटे स्कंधों के संयोग से नवीन स्कंध बनते हैं, तो दूसरी ओर, परमाणुओं में निहित स्वाभाविक स्निग्धता और रूक्षता के कारण परस्पर बंध होता है, जिससे भी स्कंधों की रचना होती है, इसलिए यह कहा गया है कि संघात और भेद से स्कंध की रचना होती है