________________ जैन धर्म एवं दर्शन-385 जैन ज्ञानमीमांसा-93 है। 'गाय' शब्द के श्रवण से गलकम्बलयुक्त पशु की आकृति चेतना में उभरती है और उसके पश्चात् तद्रूप 'गाय' वस्तु में प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार जैनों के अनुसार, यद्यपि शब्द से संकेत-ग्रहण यथार्थ वस्तु (Real object) में होता है, किन्तु शब्द जिसका पर्याय है, वह आकृति है और यह विशेषान्वित ही है। जैन इसके साथ यह भी मानते हैं कि शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण या चेतना में शब्द के विषय की आकृति का निर्माण ज्ञान और प्रवचन के द्वारा होता है। जब माता-पिता, गुरु आदि गाय शब्द का उच्चारण करके गाय नामक वस्तु दिखाते हैं, तो हम जान जाते हैं कि गाय शब्द का वाच्यार्थ वह पशु है, जो गलकम्बलयुक्त है। पुनः, गाय शब्द का वाच्य-विषय एक यथार्थ वस्तु है, किन्तु उसका वाच्यार्थ गाय की आकृति है। जैन वाच्य-विषय और वाच्यार्थ में भेद करते हैं। शब्द का वाच्य-विषय बाह्य वस्तु है किन्तु उसका वाच्यार्थ या तात्पर्य आकृति है। आकृति ही ऐसा तत्त्व है, जो एक ओर बाह्यार्थ (Object) से तथा दूसरी ओर वाच्यार्थ (Meaning) से सम्बन्धित होता है। .. . न्याय–दार्शनिकों ने इस आकृतिवाद के सिद्धान्त की निम्न आलोचना की है। प्रथमतः, चूँकि व्यक्ति अनेक हैं, इसलिए आकृति अनेक होंगी। पुनः, एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति की आकृति से भिन्न होती है। एक शब्द परस्पर भिन्न अनेक आकृतियों का वाचक नहीं हो सकता है। पुनः, किसी भी व्यक्ति के लिए यह असम्भव है कि वह उस जाति की सभी व्यक्तियों की आकृति को जान ले, क्योंकि विशेष या व्यक्ति अनेक और अलग-अलग हैं, इसलिए उनकी कोई एक आकृति नहीं हो सकती। एक सफेद गाय की आकृति काली गाय की आकृति से अवश्य भिन्न होगी। अतः, आकृतिवाद को मानने पर शब्द के अनेक वाच्यार्थ मानने होंगे। पुनः, व्यक्ति में ही क्रियाकारित्व हो सकता है, आकृति में अर्थक्रियाकारित्व सम्भव नहीं, उदाहरण के लिए - जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गाय लाने या हटाने के लिए कहता है, तो दूसरा व्यक्ति गाय के चित्र या उसकी मूर्ति को नहीं लाता है। अतः, नैयायिकों का कथन है कि आकृतिवाद की यह अवधारणा समुचित नहीं है। जैनों ने भी एकान्तिक - .