________________ जैन धर्म एवं दर्शन-384 ... जैन ज्ञानमीमांसा-92 T-मूलक होने के कारण उनमें कोई भेद नहीं है और उनके वाच्य-विषय के विकल्पित होने के कारण भी उनमें कोई भेद नहीं होगा और ऐसा होने पर विशेषण- विशेष्य-भेद, अतीत-अनागत आदि काल-भेद, स्त्री-पुरुषादि लिंग-भेद, गो, महिष आदि जाति-भेद, एकवचन, द्विवचन आदि वचन-भेद भी नहीं रह जाएंगे। पुनः, यदि बौद्ध अपोह में भेद स्वीकार करेंगे, तो फिर वह अपोह भी विकल्परूप न रहकर वस्तुरूप हो जाएगा और इस प्रकार प्रकारान्तर से जैन-मत का ही समर्थन होगा। डा. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय का अभिमत है कि अपोह केवल निषेधमूलक नहीं है। वे लिखते हैं - अपोह में प्रत्यक्ष और कल्पना, वस्तु और अवस्तु, विधि और निषेध - इनका एक जटिल मिश्रण है। आकृतिवाद और जैनदर्शन ___शब्द का वाच्यार्थ सामान्य है अथवा विशेष - इस चर्चा के प्रसंग में हमने देखा था कि जैन-दार्शनिक शब्द के वाच्यार्थ को जात्यान्वितव्यक्ति/सामान्यान्वित-विशेष मानते हैं। यद्यपि यह प्रश्न फिर भी समाधान की प्रतीक्षा करता है कि यह सामान्यान्वित-विशेष क्या है ? यह वस्तु है या बुद्ध्यर्थ / बुद्ध्यर्थ से तात्पर्य मानसिक-बिम्ब या चित्त-विकल्प से है। जहाँ न्यायवैशेषिक उसे वस्तु मानते हैं, वहाँ वैयाकरणिक और किसी सीमा तक बौद्ध उसे बुद्ध्यर्थ या बुद्धि आकार मानते हैं। जैन इन दोनों के मध्य एक समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं, उनके अनुसार, शब्द का वाच्यार्थ न तो बुद्ध्याकार या ज्ञानाकार या चित्त-विकल्प है और न बाह्यवस्तु, अपितु शब्द- श्रवण से वस्तु की चेतना में उद्भूत आकृति है। साकार ज्ञानवाद के आधार पर यह सिद्धान्त आकृतिवाद कहा जाता है। शब्दों के श्रवण या चिन्तन के माध्यम से हमारी चेतना में शब्द द्वारा वाच्य वस्तु की एक आकृति उभरती या प्रतिबिम्बत होती है और यही आकृति हमारे संवेदन या बोध का विषय होती है। जब हम 'गाय' शब्द सुनते हैं, तो चेतना में गाय की आकृति का संवेदन या बोध होता है, जोकि अश्व की आकृति से भिन्न होता है। इसी आकृति के सहारे तद्रूप वस्तुं में हमारी प्रवृत्ति होती है। अतः, शब्द का वाच्यार्थ अनुभवगम्य वस्तु की एक आकृति