________________ जैन धर्म एवं दर्शन-380 . . जैन ज्ञानमीमांसा-88 नहीं है और सामान्य अभिलाप्य होकर भी वास्तविक नहीं होता। सामान्य को वास्तविक मानने में अनेक कठिनाइयां हैं। प्रथमतः तो, वह खर-विषाण (खरगोश के सींग) के समान असत् है और असत् होने से उसमें अर्थक्रियाकारी-शक्ति भी नहीं है। बौद्धों के अनुसार, अनेक गायों में अनुस्यूत एक नित्य और निरंश गोत्व अयथार्थ है, क्योंकि विभिन्न देशों (स्थानों) और विभिन्न कालों में स्थित व्यक्तियों अर्थात् गायों में एक साथ एक ही गोत्व का पाया जाना अनुभव से विरुद्ध है। जिस प्रकार छात्रसंघ का छात्रों से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है, वह एक प्रकार की कल्पना है और सम्बन्धित व्यक्तियों की बुद्धि का विकल्प है, उसी तरह गोत्व, मनुष्यत्व आदि भी बुद्धि-विकल्प या कल्पना-प्रसूत हैं, बाह्य सत् वस्तुएँ नहीं हैं। बौद्धों के अनुसार, यह विकल्पित सामान्य ही शब्द का वाच्य है और यह अन्यापोहात्मक या अतद्-व्यावृत्ति-रूप है, अतः शब्द अर्थ (बाह्य वस्तु) का वाचक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियग्राह्य अर्थ (बाह्यवस्तु) भिन्न है और शब्द गोघर अर्थ (तात्पर्य=Meaning) भिन्न है, क्योंकि अन्धा व्यक्ति बाह्य अर्थ (वस्तु) को देख नहीं पाता है, किन्तु वह शब्द से उसके अर्थ (तात्पर्य=Meaning) को जान लेता है। पुनः, अग्नि का स्पर्श होने से जिस तरह के दाह का अनुभव होता है, वह दाह और दाह शब्द को सुनकर जिस तरह का अर्थबोध होता है, वह अलग-अलग है, अतः शब्द का वाच्य इन्द्रियग्राह्य अर्थ (बाह्यवस्तु) नहीं है। पुनः, यह शब्द इस अर्थ या वस्तु-विशेष का वाचक है - इस प्रकार का कथन भी क्षणजीवी स्वलक्षणयुक्त विशेष में संभव नहीं है, क्योंकि संकेत-ग्रहणकाल तक तो वह नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार 'गो' शब्द का 'अश्व अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है और इसलिए 'गो' शब्द 'अश्व अर्थ (वस्तु) का ज्ञान कराने में असमर्थ है, उसी प्रकार स्वलक्षणयुक्त बाह्य अर्थ (वस्तु) के साथ भी शब्द का कोई सम्बन्ध नहीं है, अतः क्षणजीवी स्वलक्षणयुक्त विशेष अर्थ शब्द का विषय नहीं हो सकता। अतः बौद्धों के अनुसार, शब्द न सामान्य के वाचक हैं और न विशेष के, वे केवल अतद्-व्यावृत्ति के द्वारा विकल्पित विषय को ही सूचित करते हैं, बाह्य वस्तु को नहीं, यही उनका अपोहवाद है।