________________ जैन धर्म एवं दर्शन-379 जैन ज्ञानमीमांसा-87 ही अपने वाच्यार्थ को स्पष्ट कर देता है, अतः स्फोट वर्ण या पद-संस्कारों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। अपोहवाद और उसका खण्डन बौद्धों का पूर्वपक्ष शब्द का वाच्यार्थ क्या है-यह प्रश्न भारतीय-दार्शनिकों के लिए विवादास्पद रहा है। बौद्ध-दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में अपोहवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। अपोह का तात्पर्य अतद्-व्यावृत्ति या अन्य-व्यावृत्ति है। शब्द के वाच्यार्थ को अन्य शब्दों के वाच्यार्थ से पृथक् करना अर्थात् अन्यापोह ही अपोह है। अपने वाच्यार्थ का अन्य वाच्यार्थ से पृथक्कीकरण ही शब्द की अपोहात्मकता है, उदाहरण के लिए - 'गाय' शब्द यह बताता है कि उसका वाच्यार्थ महिष, अश्व, पुरुष आदि नहीं है। इस प्रकार, शब्द का कार्य अपने अर्थ से भिन्न अन्य अर्थों का निषेध करना बौद्धों के अनुसार, शब्द का वाच्यार्थ न तो व्यक्ति है और न जाति; क्योंकि उनके अनुसार, ऐसी कोई यथार्थ (Real) वस्तु ही नहीं है, जिसमें शब्द का संकेत ग्रहण हो सके। स्वलक्षण वस्तु मात्र क्षणजीवी है और द्रव्य, नाम, जाति आदि केवल भाषागत व्यवहार हैं, यथार्थ वस्तुएँ नहीं हैं। शब्द और शब्द का वाच्यार्थ केवल विकल्प या कल्पना है। उसकी मान्यता है कि शब्द से विकल्प और विकल्प से शब्द जन्म लेते हैं। उनके अनुसार, व्यावहारिक-जगत् को यथार्थ मानने का मुख्य आधार भाषा ही है; क्योंकि भाषायी-व्यवहार में शब्द को बाह्य वस्तु-जगत् का संकेतक माना जाता है। शब्द विकल्प के सहचारी होने के कारण व्यवहार में उपयोगी होते हैं, किन्तु उनका अर्थ वास्तविक न होकर काल्पनिक ही होता है। यदि वस्तु क्षणिक और स्वलक्षण अर्थात् अद्वितीय स्वभाव से युक्त है, तो शब्द उनका संकेतक नहीं हो सकता; क्योंकि संकेत ग्रहण करने के काल में वह वस्तु ही नहीं रहेगी, अतः शब्द का वाच्यार्थ क्षणजीवी-विशेष नहीं हो सकता। यद्यपि शब्द का वाच्यार्थ सामान्य हो सकता है, किन्तु सामान्य की कोई वास्तविक सत्ता ही नहीं है। शब्द से प्रतिपाद्य अर्थ न तो विशेषात्मक हो सकता है और न सामान्यात्मक / क्षणजीवी-विशेष में संकेत-ग्रहण संभव