________________ जैन धर्म एवं दर्शन-378 जैन ज्ञानमीमांसा-86 जा सकते। पुनः, यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि वर्गों के द्वारा उत्पन्न होनेवाला यह संस्कार स्वयं स्फोट है, या स्फोट का एक धर्म है। यदि वर्गों के संस्कारों का ही नाम स्फोट है, तो फिर स्फोट को वर्णों से उत्पन्न हुआ मानना होगा और ऐसी स्थिति में वह नित्य नहीं होगा। यदि यह संस्कार स्वयं स्फोटरूप न होकर स्फोट का ही धर्म है, तो फिर प्रश्न यह उठता है कि वह स्फोट से भिन्न है अथवा अभिन्न है। यदि हम संस्कारों को स्फोट का धर्म मानकर स्फोट से अभिन्न मानते हैं, तो वर्गों के द्वारा उस धर्म की उत्पत्ति को स्फोट की ही उत्पत्ति माननी होगी और ऐसी स्थिति में स्फोट अनित्य हो जाएगा। यदि संस्कारों से उत्पन्न वह धर्म स्फोट से भिन्न है, तो उसका पारस्परिक सम्बन्ध नहीं बन सकेगा और ऐसी स्थिति में वर्ण-ध्वनि से स्फोट की अभिव्यक्ति मानना संभव नहीं होगा। पुनः, अभिन्न होने की दशा में यदि वर्ण-ध्वनि अर्थ का ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकती, तो फिर स्फोट भी अर्थ का, ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता है। पुनः, स्फोट का सदभाव भी किसी-किसी आधार पर सिद्ध नहीं होता है। चेतन सत्ता के सिवाय अन्य किसी तत्त्व में वाच्यार्थ के प्रकाशन की सामर्थ्य नहीं है। यदि चिदात्मा को ही स्फोट कहें, तो उसमें जैनों को भी कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि जिसमें अर्थ स्फुट अर्थात् प्रकटित होता है, उसे स्फोट कहते हैं। पुनः, चिदात्मा के सिवाय स्फोट नाम के किसी स्वतन्त्र तत्त्व का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है; अतः शब्द में ही वाच्यार्थ को स्पष्ट करने की सामर्थ्य मान लेना चाहिए। वाच्यार्थ के स्पष्टीकरण के लिए अन्य किसी स्फोट नामक स्वतन्त्र तत्त्व को मानना आवश्यक नहीं है। न केवल जैन, अपितु मीमांसक और नैयायिक भी स्फोटवाद के सिद्धान्त की आलोचना करते हैं। कुमारिल ने स्फोटवाद का खण्डन करके वर्णवाद की स्थापना की है। शब्द वर्गों की संहति है और वे ही अर्थाकार को प्रकट करते हैं। शब्दध्वनि में पूर्व-पूर्व वर्णों की ध्वनि को निरर्थक नहीं माना जा सकता है। वस्तुतः, वर्णों के संस्कार ही समष्टिरूप से शब्द के वाच्यार्थ का ज्ञान कराते हैं, अतः स्वतन्त्र रूप से शब्दाकार अर्थात् स्फोट को मानना आवश्यक नहीं है। जैनों की भी यह मान्यता है कि सापेक्ष वर्गों की संहति से पद और सापेक्ष पदों की संहति से वाक्य बनता है, जो स्वतः