________________ जैन धर्म एवं दर्शन-377 जैन ज्ञानमीमांसा-85 अर्थबोध होता है, वही स्फोट है। दूसरे शब्दों में, जिससे अर्थ का प्रकटन होता है, वही स्फोट है और यह स्फोट शब्द-ध्वनि से भिन्न है। शब्द के दो पक्ष हैं- (1) ध्वनि और (2) स्फोट / ध्वनि क्रमशः होती है, प्रत्येक वर्ण की ध्वनि से एक प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है, उस संस्कार के सहकृत अन्त्य वर्ण के श्रवण से एक मानसिक-पद की प्रतीति उत्पन्न होती है; इसी का नाम पद-स्फोट है। इसी प्रकार, वाक्य के सन्दर्भ में भी अन्तिम पद के श्रवण से एक मानसिक-वाक्य की प्रतीति होती है, यही वाक्यस्फोट है। स्फोट वाच्यार्थ का आन्तरिक या बौद्धिक-पक्ष है। न्यायकुमुदचन्द्र में आचार्य प्रभाचन्द्र भी वैयाकरणिकों का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हए कहते हैं कि वर्ण, पद और वाक्य अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं, क्योंकि वे ध्वनिरूप हैं, किन्तु स्फोट ही अर्थ का प्रतिपादक है। अर्थ की प्रतीति में हेतु वर्ण-ध्वनिं नहीं, अपितु स्फोट नामक तत्त्व ही है। ध्वनि तो अनित्य है, जबकि स्फोट नित्य है। स्फोट को यदि अनित्य माना जायेगा, तो उससे कालान्तर और देशान्तर में 'गो' शब्द को सुनकर उसके वाच्यार्थ की प्रतीति नहीं होगी, क्योंकि संकेतरहित शब्द से अर्थ की प्रतीति होना असंभव है। अतः, जो एक नित्य अखण्ड स्फोट अर्थ की प्रतिपत्ति में हेतु है, वर्णध्वनि उसको व्यक्त करके नष्ट हो जाती है। स्फोटवाद का खण्डन (1) स्फोटवाद के खण्डन में जैन-आचार्य प्रभाचन्द्र का कहना है कि यदि पूर्व वर्गों के संस्कारों से सहकृत अन्तिम वर्ण पद के वाच्यार्थ का ज्ञान कराता है, तो फिर स्फोट की कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि स्फोट के अभाव में भी अर्थ की प्रतिपत्ति हो सकती है। इसके लिए स्फोट की कल्पना आवश्यक नहीं लगती। जब दृष्ट कारण से ही अर्थात् पूर्व वर्गों के संस्कार की स्मृति तथा अन्तिम वर्ण के श्रवण से कार्य अर्थात् अर्थबोध हो सकता है, तो फिर अदृष्ट कारणान्तर के रूप में स्फोट की कल्पना करना बुद्धियुक्त नहीं है। (2) पुनः, यदि समष्टि या व्यष्टि-रूप में वर्ण अर्थ का ज्ञान कराने में असमर्थ है, तो फिर वे स्फोट को भी अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं माने