________________ जैन धर्म एवं दर्शन-381 जैन ज्ञानमीमांसा-89 अपोहवाद की समालोचना प्रमेयकमलमार्तण्ड में जैनों ने बौद्धों के इस अपोह-सिद्धान्त का विविध आधारों पर खण्डन किया है - (1) बौद्धों के अपोहवाद के सन्दर्भ में जैनों का प्रथम आक्षेप यह है कि शब्द का विषय केवल विकल्पित सामान्य नहीं, अपितु यथार्थ सामान्य है। यह सत्य है कि व्यक्तियों से पृथक् किसी सामान्य को सत्ता नहीं है, सामान्य व्यक्तिनिष्ठ है, किन्तु फिर भी वह यथार्थ है, काल्पनिक नहीं। जैनों के अनुसार, वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। प्रत्येक वस्तु के कुछ धर्म अन्य वस्तुओं के सदृश होते हैं और कुछ विदृश। इन सदृश धर्मों को ही जैनों ने सामान्य माना है। वे यह मानते हैं कि सामान्य अनेकानुगत न होकर प्रत्येक व्यक्तिनिष्ठ है। दूसरे शब्दों में, सामान्य नाम का कोई एक तत्त्व नहीं है, जो कि सभी व्यक्तियों में अनुस्यूत है, अपितु व्यक्तियों के अलग-अलग सदृश गुण-धर्म ही सामान्य हैं, जोकि प्रत्येक व्यक्ति में उपस्थित रहकर उसे एक वर्ग या जाति की सदस्य बनाते हैं। सादृश्यता व्यक्ति का धर्म है और व्यक्ति के धर्म के रूप में वह यथार्थ है। जिस तरह प्रत्यक्ष आदि प्रमाण का विषय जात्यान्वित व्यक्ति या सामान्यविशेषात्मक वस्तु होती है, उसी तरह शब्द का विषय भी सामान्य-विशेषात्मक यथार्थ वस्तु ही है, विकल्पित वस्तु नहीं। (2) यदि शब्द का वाच्यार्थ विकल्पित वस्तु है, तो ऐसी स्थिति में कथन की सत्यता और असत्यता का निर्धारण संभव ही न होगा, क्योंकि कथन की सत्यता और असत्यता का आधार उसके वाच्यार्थ की यथार्थ आनुभविक-जगत् में प्राप्ति और अप्राप्ति ही है। जिस कथन के अनुरूप बाह्य-जगत् में वस्तु उपलब्ध हो, वह सत्य माना जाता है और जिस कथन के अनुरूप बाह्यार्थ प्राप्त न हो, वह मिथ्या माना जाता है। बौद्धों के अनुसार, ज्ञान की प्रामाणिकता का आधार उसकी अविसंवादिता है और इस अविसंवादिता के निर्णय का आधार बाह्यार्थ को छोड़कर अन्य कोई दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि जिस कथन के अनुरूप बाह्यार्थ (वस्तु) प्राप्त नहीं होते हैं, उन्हें ही हम विसंवादी या मिथ्या कहते हैं। अतः, शब्द का