________________ जैन धर्म एवं दर्शन-295 जैन ज्ञानमीमांसा-3 प्रतीति का विषय, या तत्त्व का बुद्धि-निर्दिष्ट स्वरूप ? चार्वाक दार्शनिकों, भौतिकवादी-वैज्ञानिकों एवं अनुभववादी- दार्शनिकों ने वस्तुतत्त्व या सत् के इन्द्रियप्रदत्त ज्ञान को ही यथार्थ समझा और बुद्धिप्रदत्त उस ज्ञान को, जो इन्द्रियानुभूति का विषय नहीं हो सकता था, अयथार्थ कहा। दूसरी ओर, कुछ बुद्धिवादी तथा अध्यात्मवादी-दार्शनिकों ने उस इन्द्रियगम्य ज्ञान को अयथार्थ कहा, जो बौद्धिक-तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता था, लेकिन ये दोनों एकांगी दृष्टिकोण समस्या का सही समाधान प्रस्तुत नहीं करते थे। यही कारण था कि प्रबुद्ध दार्शनिकों को अपनी व्याख्याओं के लिए सत् के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेना पड़ा। जिन दार्शनिकों ने सत् की व्याख्या के सन्दर्भ में दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेने से इनकार किया, वे एकांगी रह गए और उन्हें इन्द्रियजन्य संवेदनात्मक ज्ञान और तार्किक चिन्तनात्मक ज्ञान में से किसी एक को अयथार्थ मानकर उसका परित्याग करना पड़ा। सम्भवतः, इस दार्शनिक-समस्या के निराकरण एवं सत् के सन्दर्भ में सर्वांग दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास जैन और बौद्ध-आगमों में परिलक्षित होता है। जैन-विचारधारा के अनुसार, न तो इन्द्रियानुभूति ही असत्य है और न बुद्धिप्रदत्त ज्ञान ही। एक में सत् का वह ज्ञान है, जिस रूप में हमारी इन्द्रियाँ उसे ग्रहण कर पाती हैं। दूसरे में सत् का वह ज्ञान है, जिस रूप में वह है, अथवा बुद्धि उसके मौलिक स्वरूप के विषय में जो ज्ञान हमें प्रदान करती है। जैन-आगमों के अनुसार, पहली को व्यवहारनय कहते हैं और दूसरी को निश्चयनय / व्यवहारदृष्टि स्थूलतत्त्वग्राही है, जो यह बताती है कि तत्त्व या सत्ता को जनसाधारण किस रूप में समझता है। निश्चयदृष्टि सूक्ष्मतत्त्वग्राही है, जो सत्ता के बुद्धिप्रदत्त वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराती है, जैसे, पृथ्वी सपाट एवं स्थिर है - यह व्यवहारदृष्टि है, क्योंकि हमारा लोक - व्यवहार ऐसा ही मानकर चलता है और पृथ्वी गोल एवं गतिशील है- यह निश्चयदृष्टि है, अर्थात् वह उसका वास्तविक स्वरूप है। दोनों में से किसी को भी अयथार्थ तो कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि एक इन्द्रियप्रतीति के रूप में सत्य है और दूसरा बुद्धिनिष्पन्न सत्य है। सत् के विषय में ये दो दृष्टियाँ हैं, दोनों ही