________________ जैन धर्म एवं दर्शन-294 जैन ज्ञानमीमांसा-2 जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं गाणं जिणसासणे।। जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।। . जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, जिससे चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा की विशुद्धि होती है, अथवा जिससे जीव राग-द्वेष से विमुख होता है, श्रेयस् में अनुरक्त होता है और जिससे मैत्रीभाव प्रकट होता (बढ़ता) है, उसी को जिनशासन में सम्यक् ज्ञान कहा गया है। जैन-दर्शन के अनुसार, ज्ञान केवल रचनात्मक जानकारी नहीं है। मिथ्यादृष्टि को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होते हैं, किन्तु जैन-दर्शन उन्हें अज्ञान ही कहता है। जो ज्ञान सम्यक् प्रकार से जिया नहीं जाता है, उसे जैन-दर्शन अज्ञान कहता है। मिथ्यादृष्टि के उपरोक्त तीनों ज्ञान भी अज्ञान ही हैं, अज्ञान भी तीन प्रकार का है- 1. संशय, 2. विपर्यय (विपरीत ज्ञान) 3. अनध्यवसाय | जो अज्ञान को नष्ट करे, वही ज्ञान है। अत; संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को जो समाप्त करता है, वही ज्ञान है। 1. ज्ञान प्राप्ति की दो विधाएँ , ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन हैं - 1. अनुभूति और 2. बुद्धि / ज्ञान के क्षेत्र में हमारा अनुभव और हमारा बौद्धिक-चिन्तन सत् के कम-से-कम दो पक्ष तो उपस्थित कर ही देता है। एक, वह जो दिखाई पड़ता है और दूसरा, वह जो इस दिखाई पड़ने वाले के मूल में है- एक, वह जो प्रतीति (अनुभूति) है और दूसरा, वह जो उस प्रतीति का आधार है। बुद्धि कभी भी इस बात से सन्तुष्ट नहीं होती कि जो कुछ प्रतीति है, वह उसी रूप में सत्य है, वरन् वह स्वयं उस प्रतीति के पीछे झाँकना चाहती है, वह सत् के इन्द्रियगम्य स्थूल स्वरूप से सन्तुष्ट न होकर उसके सूक्ष्म और मूल स्वरूप तक जाना चाहती है। दृश्य से सन्तुष्ट न होकर उसकी तह तक प्रवेश करना मानवीय-बुद्धि की नैसर्गिक प्रकृति है और जब अपने इस प्रयास में वस्तुतत्त्व के प्रतीत होने वाले स्वरूप और उस प्रतीति के मूल में निहित आत्म-निर्दिष्ट या बुद्धि-निर्दिष्ट स्वरूप में अन्तर पाती है, तो वह स्वतः प्रसूत इस दुविधा में पड़ जाती है कि इनमें से यथार्थ कौन है -