________________ जैन धर्म एवं दर्शन-296 जैन ज्ञानमीमांसा-4 अपने-अपने क्षेत्र में सत्य हैं, यद्यपि दोनों में से कोई भी अकेले स्वतन्त्र रूप में सत् का पूर्ण स्वरूप प्रकट नहीं करती है। वस्तुस्वरूप की अनुभूति और अभिव्यक्ति- दोनों ही सापेक्ष हैं। एक बुद्धि और इन्द्रिय सापेक्ष है, तो दूसरी भाषा-सापेक्ष है, अतः नय या दृष्टि पर आधारित है। नय-ज्ञान सीमित या सापेक्ष है। नयों एवं दृष्टियों से जाना गया और भाषा द्वारा अभिव्यक्त ज्ञान भी सीमित या सापेक्ष सत्य ही होता है, जो ज्ञान जिस दृष्टि से जाना गया या जिन शब्दों के माध्यम से कहा गया, उसकी सत्यता उसी दृष्टिकोण पर आधारित होती है। संसार में कुछ भी निरपेक्ष सत्य नहीं है, सभी कथन सापेक्ष सत्य ही हैं। 2. जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञान की विविध विधाएँ ___ जैसा कि ऊपर कहा गया है, जैन-दार्शनिक सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोण लेकर चलते हैं - निश्चयनय और व्यवहारनय / जैन-दर्शन के . अनुसार, 'सत् अपने आप में एक पूर्णता है, अनन्तता है। इन्द्रियानुभूति, बुद्धि, भाषा और वाणी अपनी सीमा में अनन्त के एकांश का ही ग्रहण कर पाती हैं। वही एकांश का बोध नय (दृष्टिकोण) कहलाता है। सत के अनन्त पक्षों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है, वे सभी नय कहे जाते हैं। दृष्टिकोणों के सम्बन्ध में जैन-दार्शनिकों का कहना है कि सत् की अभिव्यक्ति के लिए भाषा के जितने प्रारूप (कथन के ढंग) हो सकते हैं, उतने ही नय के भेद हैं। जैन-दार्शनिकों के अनुसार, जितने नय के भेद हो सकते हैं, उतने ही वाद या मतान्तर अथवा दृष्टिकोण होते हैं। वैसे तो जैन-दर्शन में नयों की संख्या अनन्त मानी गई है, लेकिन फिर भी मोटे तौर पर नयों के दो और सात भेद किए गए हैं। ___एक अन्य अपेक्षा से, जैन-दर्शन में ज्ञान की तीन विधाएँ मानी गई हैं। जैन-दर्शन में ज्ञान पाँच प्रकार का है - (1) मतिज्ञान, (2) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (4) मनःपर्यवज्ञान और (5) केवलज्ञान। इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं और शेष तीन अपरोक्षज्ञान हैं। अपरोक्षज्ञान में आत्मा को सत् का बिना किसी साधन के सीधा बोध होता है। इसे अपरोक्षानुभूति भी कहा जा सकता है। शेष दो, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्रमशः अनुभूत्यात्मक-ज्ञान और बौद्धिक-ज्ञान से सम्बन्धित हैं। मतिज्ञान में ज्ञान