________________ जैन धर्म एवं दर्शन-375 जैन ज्ञानमीमांसा-83 'सागरमल' शब्द का वाच्य वह व्यक्ति विशेष नहीं है, जो प्रतिक्षण बदल रहा है, अपितु वह है, जो इन बदलती हुई अवस्थाओं में भी अनुस्यूत (सामान्य) है। इसके विपरीत, बौद्धों का कहना था कि विशेष से पृथक होकर सामान्य की कोई सत्ता नहीं है, अतः शब्द का वाच्य या संकेतक समष्टि न होकर व्यष्टि ही है। बौद्ध-दार्शनिक यह कहते हैं कि शब्द का मुख्य कार्य 'अन्य की व्यावृत्ति या अन्यापोह है, अतः उसका वाच्य विशेष ही होता है। जैन-दार्शनिकों ने इन दोनों परस्पर विरोधी मतों का समन्वय करते हुए कहा है कि शब्द का वाच्य, जात्यान्वित् व्यक्ति होता है। शब्द न तो एकान्त रूप से 'सामान्य' या 'जाति' का संकेतक है और न एकान्त रूप से विशेष' या व्यक्ति का संकेतक है, अपितु वह सामान्य-युक्त-विशेष का या जात्यान्वित-व्यक्ति का संकेतक है। जैनदर्शन के अनुसार, शब्द सामान्य का संकेतक है या विशेष कां - यह प्रश्न ही गलत है, यह प्रश्न तभी सम्भव है, जब सामान्य और विशेष एक-दूसरे से पूर्णतः स्वतंत्र सत्ताएं हों। जैनदर्शन के अनुसार, सामान्य और विशेष अथवा जाति और व्यक्ति विचार के स्तर पर पृथक्-पृथक् हो सकते हैं, किन्तु सत्ता के स्तर पर वे पृथक्-पृथक् नहीं हैं। व्यक्ति से भिन्न न तो जाति होती है और न सामान्य या जाति से रहित व्यक्ति ही। मनुष्यत्व मनुष्यों से पृथक् नहीं देखा जाता है। यहाँ भी जैन-दार्शनिक दो परस्पर विरोधी मतों का समन्वय करके चलते हैं। शब्द और उसके वाच्यार्थ के सन्दर्भ में तद्रूपता या तादात्म्य-सम्बन्ध या तदुत्पत्ति-सम्बन्ध को अस्वीकार करके वाच्य-वाचक-सम्बन्ध को ही स्वीकार किया है। नित्या-अनित्या-सम्बन्ध - शब्द अर्थ के सम्बन्ध में एक अन्य प्रश्न यह उठता है कि शब्द और अर्थ में नित्य-सम्बन्ध है या अनित्य-सम्बन्ध है ? मीमांसक-दार्शनिक शब्द और अर्थ में नित्य-सम्बन्ध मानते हैं। इसके विपरीत, बौद्ध-दार्शनिक शब्द और अर्थ में अनित्य-सम्बन्ध मानते हैं। इस सम्बन्ध में जैन-दार्शनिकों का कहना यह है कि शब्द अपने आप में नित्य नहीं है, वह उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, किन्तु जहाँ तक शब्दार्थ में शब्द और उसके अर्थ का