________________ जैन धर्म एवं दर्शन-374 जैन ज्ञानमीमांसा-82 वाच्य-वाचक सम्बन्ध है, तो शब्द अपना अर्थ कैसे पाते हैं ? इस सम्बन्ध में, जहाँ न्यायदर्शन एवं प्राचीन मीमांसा-दर्शन यह मानते हैं कि शब्द और अर्थ का यह सम्बन्ध ईश्वर के द्वारा पूर्व नियत कर दिया गया है, जैन-दार्शनिक इस मत को भी स्वीकार नहीं करते हैं। उनका कहना है कि यदि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ईश्वर द्वारा प्रतिनियत होता, तो कालक्रम में शब्दों के अर्थ में परिवर्तन नहीं होना चाहिए, किन्तु यह देखते हैं कि कालक्रम में शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, जैसे- आज से 50-60 वर्ष पूर्व तक 'दादा' शब्द एक सम्मानित व्यक्ति का सूचक होता था, किन्तु आज दादा शब्द गुंडे व्यक्ति का वाचक हो गया है, अतः शब्द और अर्थ में कालक्रम में जो परिवर्तन होता है, वह यह सिद्ध करता है कि शब्द अपने साथ अपना अर्थ लेकर उत्पन्न नहीं होता, अपितु शब्दों को यह अर्थ दिया जाता है। शब्दों को अर्थ समाज और परम्परागत प्रयोगों से मिलता है, अतः शब्द और अर्थ में किसी प्रकार अनियत सम्बन्ध नहीं है। शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में समाज द्वारा मान्य कर लिया जाता है, उसके प्रयोग से वह शब्द उस अर्थ का वाचक हो जाता है, अर्थात् जैन-दार्शनिकों के अनुसार, शब्द को अर्थ अभिसमय से प्राप्त होता है। शब्द अपना अर्थ लेकर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु उनको समाज द्वारा एक अर्थ दे दिया जाता है और वे उसके वाचक बन जाते हैं। शब्द का वाच्य सामान्य या विशेष ? 'शब्द' सामान्य का वाचक है या विशेष का वाचक है ? यह प्रश्न भी भारतीय-दर्शन में प्रमुख रहा है। इस सम्बन्ध में भी दो प्रकार की अवधारणाएँ प्रचलित रही हैं। प्रथम अवधारणा के अनुसार, शब्द सामान्य या जाति का वाचक होता है। मीमांसक-दार्शनिकों की यही मान्यता है कि शब्द सामान्य के सूचक एवं ग्राहक हैं, जैसे - ‘मनुष्य' शब्द मनुष्य-जाति का और 'गौ' शब्द गौ जाति का वाचक है। जहाँ तक बौद्ध-दार्शनिकों का प्रश्न है, उन्होंने यह माना है कि सब शब्द व्यक्ति के ही सूचक और ग्राहक हैं। इसके विपरीत, मीमांसक यह कहते रहे यहाँ तक कि व्यक्तिवाचक नाम भी सामान्य के ही सूचक हैं, जैसे -