________________ जैन धर्म एवं दर्शन-371 . जैन ज्ञानमीमांसा-79 अनुमान का आवश्यक अवयव नहीं मानते हैं, वहीं जैन-दार्शनिक पक्ष और हेतु- ऐसे दो अवयवों को तो अवश्य ही स्वीकार करते हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि बौद्ध-दार्शनिकों में धर्मकीर्ति ही एक ऐसे दार्शनिक हैं, जो स्पष्ट रूप से परार्थानुमान के अवयवों में पक्ष या प्रतिज्ञा को आवश्यक नहीं मानते हैं। जैन-दार्शनिकों में वादिदेवसूरी ने स्याद्वादरत्नाकर में और रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में धर्मकीर्ति द्वारा पक्ष को अनुमान का आवश्यक अवयव नहीं मानने की अवधारणा की विस्तृत रूप से समीक्षा की जिसकी जिसमें सिद्धि की जाती है, वह ‘पक्ष' होता है, किन्तु जो वस्तुतः पक्ष न हो, फिर भी उसे पक्ष मान लेना - जैन-दार्शनिकों ने इसे ही पक्षाभास कहा है। जहाँ तक जैन-दार्शनिकों का प्रश्न है, उन्होंने अनुमान में पक्ष और हेतु - ऐसे दो अवययों को तो अवश्य ही स्वीकार किया है। बौद्ध-दार्शनिक पक्ष की अनिवार्यता का निषेध इसलिए करते हैं, क्योंकि विज्ञानवादी-बौद्ध बाह्यार्थ की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते हैं। बौद्ध-दार्शनिकों ने अप्रसिद्ध-विशेषण, अप्रसिद्ध-विशेष्य और अप्रसिद्ध-उभय - इन तीनों को पक्षाभास के रूप में स्वीकार किया था, किन्तु जैन-दार्शनिकों के अनुसार, अप्रसिद्ध-विशेषण आदि को सिद्ध करना तो उचित माना जा सकता है, किन्तु जो सिद्ध है, उसे सिद्ध करने का कोई औचित्य ही नहीं रहता, इसलिए पक्षाभास का कथन करना ही युक्ति-संगत नहीं है। ___ पक्ष के अतिरिक्त, अनुमान में दूसरा अवयव हेतु है और इसलिए यहाँ हेत्वाभास की चर्चा भी आवश्यक है। जैन आचार्य रत्नप्रभसूरि का कथन है कि जो हेतु साध्य के बिना नहीं होता, वही एकमात्र सद् हेतु होता है, किन्तु जो हेतु मिथ्या हेतु होकर भी सद् हेतु के समान दिखाई देता है, उसे हेत्वाभास कहा जाता है। जैन-दार्शनिकों ने हेत्वाभास को तीन प्रकार का कहा है - असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक / साध्य के विपरीत किसी अन्य तथ्य के साथ जिसकी व्याप्ति निश्चित हो, वह विरुद्ध हेत्वाभास कहलाता है, साथ ही, साध्य के साथ हेतु के अन्यथानुपपत्ति होना चाहिए, अर्थात् हेतु को साध्य के साथ ही होना चाहिए, अन्य तथ्य के साथ नहीं, किन्तु जो हेतु साध्य के साथ भी हो तथा साध्य के इतर किसी भी अन्य