________________ जैन धर्म एवं दर्शन-372 जैन ज्ञानमीमांसा-80 तथ्य के साथ हो - ऐसा हेतु अनेकान्तिक-हेत्वाभास कहलाता है, साथ .ही, जिस हेतु से साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं हो, उसको असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं। ऐसे तीनों प्रकार के हेतु वस्तुतः हेत्वाभास की कोटि में आते हैं। जैन-दार्शनिक हेत्वाभास के होने पर अनुमान-प्रमाण की सिद्धि सम्भव नहीं मानते हैं। जैन-आचार्यों ने पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास - तीनों को ही अनुमान की प्रमाणरूपता में बाधक माना है, अतः अनुमान को पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास से रहित होना चाहिए। ज्ञातव्य है कि जो दृष्टान्त वास्तविक न होकर दृष्टान्त या उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वह दृष्टान्ताभास होता है। इन तीनों आभासों से रहित अनुमान ही प्रमाणरूप होता है। (6) शब्द या आगम-प्रमाण जैन-दार्शनिक प्राचीनकाल से ही शब्द एवं आगम को प्रमाणरूप मानते रहे हैं। यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि किसके शब्द या कथन या किसके द्वारा कथित आगम प्रमाणरूप माने जाएं ? इस सम्बन्ध में जैन-दार्शनिक इस निश्चय पर पहंचते हैं कि आप्त-पुरुष का कथन ही प्रमाणरूप होता है। प्रश्न उठता है कि आप्त कौन होता है ? इसके उत्तर में जैन-दार्शनिकों का कहना है कि जो सर्वज्ञ और वीतराग हो, वही आप्त हो सकता है। इन दोनों में से किसी एक का अभाव होने पर उसके वचन मान्य नहीं हो सकते हैं, क्योंकि जो सर्वज्ञ नहीं होगा, वह जो कुछ जानता है, वह सही हो - ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार, जिसमें वीतरागता नहीं हो, उसके वचन भी प्रमाणरूप नहीं माने जा सकते हैं, इसलिए जैन–दार्शनिकों ने अपने तीर्थंकरों को सर्वज्ञ और वीतराग - दोनों ही माना है। प्राचीनकाल में जैन-दार्शनिकों ने आगम-ग्रन्थों को प्रमाणभूत माना था। नन्दीसूत्र के काल तक आगम या श्रुतज्ञान की प्रमाणता ही मुख्य रही, किन्तु कालान्तर में शब्द या कथन की प्रमाणता के सन्दर्भ में भी विचार हुआ। शब्द-प्रमाण के सन्दर्भ में मुख्य रूप से शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को लेकर जैन-आचार्यों ने विस्तार से चर्चा की है।