________________ जैन धर्म एवं दर्शन-370 जैन ज्ञानमीमांसा-78 के अनुमान-प्रमाण को अभ्रांत प्रमाण नहीं मानने का विस्तार से खण्डन भी किया है। अनुमान के अवयव ___ जैन-दार्शनिकों में अनुमान के अवयवों को लेकर चार मत मिलते हैं। प्रथमतः, स्वार्थ-अनुमान में तो हेतु-दर्शन से अनुमान हो जाता है। परार्थ-अनुमान में प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए तो प्रतिज्ञा और हेतु - ये दो अवयव ही पर्याप्त हैं, किन्तु सामान्य बुद्धि के व्यक्तियों के लिए न्यायिकों के समान ही अनुमान के पाँच अवयव भी माने गये हैं - 1. प्रतिज्ञा, 2. हेतु, 3. दृष्टान्त, 4. उपनय और 5. निगमन और इसे निम्न प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है - 1. प्रतिज्ञा- पर्वत पर आग है। 2. हेतु - क्योंकि पर्वत पर धुआं है। 3. दृष्टान्त- जहाँ-जहाँ धुआं होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है, जैसे - रसोईघर। 4. उपनय- पर्वत पर भी धुआं है। 5. निगमन- पर्वत पर भी आग है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कुछ जैन-दार्शनिकों ने अनुमान के दस अवयव भी माने हैं, उसके भी दो रूप मिलते हैं, प्रथम रूप में उन्होंने उपर्युक्त पाँच अवयवों में से प्रत्येक अवयव की विशुद्धि को जोड़कर निम्न दस अंगों की चर्चा भी की है, जैसे - 1. प्रतिज्ञा, 2. प्रतिज्ञा-विशुद्धि, 3. हेतु, 4. हेतु-विशुद्धि, 5. दृष्टांत, 6. दृष्टांत-विशुद्धि, 7. उपनय, 8. उपनय-विशुद्धि, 9. निगमन और 10. निगमन-विशुद्धि / अन्यत्र, वे न्याय-भाष्य का अनुमान करते हुए प्रकारान्तर से निम्न दस अंगों का भी निर्देश करते हैं- 1. प्रतिज्ञा, 2. प्रतिज्ञा-विभक्ति, 3. हेतु, 4. हेतु- विभक्ति, 5. विपक्ष, 6. विपक्ष-प्रतिषेध, 7. दृष्टांत, 8. आशंका, 9. आशंका-प्रतिषेध और 10. निगमन / यद्यपि जैन-दार्शनिक सिद्धसेन, अकलंक आदि भी बौद्ध-दार्शनिक धर्मकीर्ति के समान ही व्युत्पन्नमति के लिए दो अवयवों को स्वीकार करते हैं, फिर भी जहाँ बौद्ध-दार्शनिक धर्मकीर्ति पक्ष को