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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-369 जैन ज्ञानमीमांसा-77 2. सपक्षसत्त्व, 3 विपक्षअसत्त्व, 4. अबाधित विषयत्व और 5. असत्प्रतिपक्षत्व लक्षण माने हैं, वहाँ बौद्धों ने हेतु के - 1. पक्षधर्मत्व, 2. सपक्षसत्त्व 3. विपक्षअसत्त्व - ऐसे तीन लक्षण माने हैं। जैन-दार्शनिक अविनाभाव-सम्बन्ध को ही हेतु या व्याप्ति का लक्षण मानते हैं। माणिक्यनन्दी और हेमचन्द्र के अनुसार, जिसका साध्य के साथ अविनाभावित्व निश्चित हो, वही हेतु है, जैसे - धुआँ (हेतु) अग्नि (साध्य) के बिना नहीं होता है। वादिदेवसूरी के अनुसार, निश्चित अन्यथानुपपत्ति-रूप एक लक्षण वाला ही हेतु होता है। यहाँ हम यह देखते हैं कि बौद्धों ने हेतु के जो तीन लक्षण और नैयायिकों न जो पाँच लक्षण बताये हैं, वे शाब्दिक-रूप में इसी एक लक्षण का विस्तार मात्र हैं। रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभ आचार्य ने साध्य और साधन के गम्य-गमक- भाव-सम्बन्ध को ही ध्यान में रखकर कहा है कि जिस प्रकार धूम अग्नि से उत्पन्न होने के कारण अग्नि का कार्य कहलाता है और अग्नि कारण कहलाती है, अतः दो तथ्यों के मध्य नियत कार्य-कारण-भाव होने से व्याप्ति का निश्चय हो जाता है, जैसे - जहाँ-जहाँ धुआं होता है, वहाँ अग्नि होती है। अनुमान के प्रकार : जैन-दार्शनिकों ने अनुमान के दो प्रकार माने हैं - स्वार्थ-अनुमान और परार्थ-अनुमान। जिस अनुमान में कर्ता स्वयं ही धूम को देखकर अग्नि का निश्चय कर लेता है, वह स्वार्थ-अनुमान कहा जाता है। इसके विपरीत, जिसमें हेतु को दिखाकर दूसरे व्यक्तियों को साध्य का निश्चय कराते हैं, वह परार्थ-अनुमान होता है। ___ जैन-दार्शनिकों ने अनुमान के इन दोनों प्रकारों को प्रमाण के रूप में ही स्वीकार किया है और वे कहते हैं कि बौद्ध-दार्शनिक, जो अनुमान को प्रमाण मानकर भी उसे अभ्रांत नहीं मानते हैं, वे वस्तुतः भ्रान्त ही हैं, उनका यह सिद्धान्त सम्यक नहीं है। न्यायावतार में सिद्धसेन के द्वारा कहा गया है कि अनुमान प्रमाण होने के कारण अभ्रांत ही होता है, क्योंकि एक ओर, अनुमान को अभ्रांत नहीं मानना और दूसरी ओर, उसे प्रमाण कहना - यह परस्पर विरोधी बात है। इस दृष्टि से जैन-आचार्यों ने बौद्धों
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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