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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-368 जैन ज्ञानमीमांसा-76 लिंग, वचन एवं विभक्ति आदि के परिवर्तन कर लेना ऊह या तर्क है। इस प्रकार, मीमांसादर्शन में ऊह या तर्क का अर्थ कर्मकाण्डीय-भाषा के विवेक से अधिक कुछ नहीं है। संक्षेप में, उपर्युक्त तीनों दर्शनों मे तर्क का कार्य या तो व्याकरण सम्बन्धी नियमों का ध्यान रखते हुए शब्द एवं वाक्य के अर्थ का निर्धारण करना है, या यज्ञ-याग आदि कर्मों को सम्पन्न करते समय भाषायी-विवेक ध्यान रखना है, चाहे इन दर्शनों ने तर्क की प्रामाणिकता को स्वीकार किया हो, किन्तु न तो वे उसे स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं और न व्याप्ति-ग्रहण में उसके योगदान को ही स्वीकार करते हैं। 5. अनुमान-प्रमाण ___ भारतीय-दर्शनों में चार्वाक्-दर्शन को छोड़कर शेष सभी दर्शनों में अनुमान को भी एक प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। 'अनुमान' शब्द का अर्थ होता है - एक ज्ञान के पश्चात् होने वाला दूसरा ज्ञान / अनुमान को परिभाषित करते हुए न्यायावतार में कहा गया है कि साध्य के बिना न होने वाले हेतु से साध्य का निश्चय कराने वाला जो ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहा जाता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि दो तथ्यों के बीच होने वाले व्याप्ति-सम्बन्ध के आधार पर किसी एक की उपस्थिति से दूसरे का ज्ञान करना - वह अनुमान है। दूसरे शब्दों में, हेतु और साध्य में जो अविनाभाव-सम्बन्ध या व्याप्ति-सम्बन्ध होता है, उसके आधार पर हेतु की उपस्थिति से साध्य का निश्चय कर लेना अनुमान है, जैसे - पर्वत पर धुएं को देखकर वहाँ अग्नि के होने का अनुमान किया जाता है। अनुमान में हेतु का प्रत्यक्ष होता है, किन्तु साध्य का प्रत्यक्ष नहीं होता है, किन्तु हेतु के प्रत्यक्षीकरण के आधार पर ही वहाँ साध्य की उपस्थिति का निश्चय होता है, अतः अनुमान को परोक्ष ज्ञान माना गया है। हेतु के साध्य के मध्य रहे हुए अविनाभाव-सम्बन्ध को ही व्याप्ति-सम्बन्ध भी कहा गया है। प्रायः, सभी दार्शनिकों ने व्याप्ति-सम्बन्ध को अनुमान का आधार माना है। हेतु वह होता है, जिसमें साध्य का निश्चय होता है। हेतु के लक्षणों को लेकर जहाँ नैयायिकों ने हेतु के ये पाँच - 1. पक्षधर्मत्व,
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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