________________ जैन धर्म एवं दर्शन-367 जैन ज्ञानमीमांसा -75 हुआ है, अतः देवता एवं द्रव्य का ध्यान रखकर उनमें परिणमन कर लेना चाहिए (महाभाष्य 1/111) / यहाँ ऊह भाषायी-विवेक और भाषायी-नियमों के पालन से अधिक कुछ नहीं है। भाषायी-नियमों के आधार पर स्वरूप एवं अर्थ को निर्धारित करने की प्रक्रिया वस्तुतः अनुमान का ही एक रूप है, अतः तर्क अनुमान के ही अन्तर्गत है, उसका स्वतन्त्र स्थान नहीं है। इस प्रकार, इन दोनों दर्शनों में ही तर्क का प्रसंग ज्ञानमीमांसीय न होकर भाषाशास्त्रीय ही है। मीमांसा-दर्शन में भी तर्क की प्रामाणिकता को स्वीकार किया गया है, किन्तु उसका सन्दर्भ भी प्रमाणमीमांसा न होकर विशुद्ध रूप से कर्मकाण्ड सम्बन्धी भाषा का ही है। मीमांसाकोष में ऊह के स्वरूप के सम्बन्ध में लिखा है - अन्यथा श्रुतस्य शब्दस्य अन्यथा लिंग वचनादिभेदेन विपरिणभनम् ऊहः, अर्थात् मंत्र आदि में दिये गये मूल पाठ में विनियोग के अनुसार लिंग, वचन आदि में परिवर्तन करना ऊह कहा जाता है। मीमांसाशास्त्र के सम्पूर्ण नवम् अध्याय के चार पादों के 224 सूत्रों में ऊह पर विस्तार से विचार किया गया है, किन्तु सारा प्रसंग कर्मकाण्डीय भाषाशास्त्र का ही है। उनमें तीन प्रकार के ऊह माने गये हैं - 1. मंत्र- विषयक ऊंह 2. साम-विषयक ऊह, और 3. संस्कार-विषयक ऊह, किन्तु तीनों के सन्दर्भ कर्मकाण्डीय-भाषा से सम्बन्धित हैं। भाट्ट दीपिकाकार का कथन है कि प्रकृति-योग (अर्थात् जिसके लिए वह मंत्र रचा गया है) में पठित मंत्र का विकृति-योग में उसके अनुरूप परिवर्तन कर लेना ही ऊह है उदाहरण के लिए यज्ञकर्म में जहाँ ब्रीहि (चावल) द्रव्य है, वहाँ अवहनन ब्रीहि में किया जाता है। यही यज्ञकर्म अगर नीवार (जंगली चावल) से किया जाए, तो अवहनन नीवार में सम्पन्न होगा, यह द्रव्य-विषयक ऊह है। इसी प्रकार, अग्निदेवता के लिए चरू निर्वपन करते समय 'अग्नयेत्वा जुष्टं निर्वपामि' मंत्र का प्रयोग प्राकृत है, किन्तु जब अग्नि के स्थान पर सूर्यदेवता के लिए चरू निर्वपन करना हो, तो चतुर्थी विभक्त्यन्त सूर्य शब्द का प्रयोग करते हुए 'सूर्याम् त्वा जुष्टं निर्वयामि' मंत्र का प्रयोग होता है। यह मंत्र श्रुति में पठित नहीं है, किन्तु ऊह सिद्ध है। संक्षेप में, यज्ञ एवं सस्कार आदि को सम्पन्न करते समय देवता, द्रव्य, यजमान आदि का ध्यान रखते हुए परिस्थिति के स्वरूप मंत्रों के शब्द तथा