________________ जैन धर्म एवं दर्शन-366 . जैन ज्ञानमीमांसा-74 और प्रकृति की समरूपता के नियमों के रूप में तथा निगमनात्मक तर्कशास्त्र में विचार के नियमों के रूप में जाना जाता है और जो क्रमशः आगमन और निगमन की पूर्व मान्यता के रूप में स्वीकृत हैं। इस प्रकार, तर्क की विषय-वस्तु तर्कशास्त्र की अधिमान्यताएं (Postulates of Logic and Reasoning) हैं, वह प्रत्यक्ष और अनुमान से तथा आगमन और निगमन से विलक्षण है। वह सम्पूर्ण तर्कशास्त्र का आधार है, क्योंकि वह उस आपादन (Implication) या व्याप्ति के ज्ञान को प्रदान करता है, जिस पर निगमनात्मक-तर्कशास्त्र टिका हुआ है और जो आगमनात्मक-तर्कशास्त्र का साध्य है। तर्क का यही विलक्षण स्वरूप एक ओर उसे प्रत्यक्ष और अनुमान-प्रमाणों से भिन्न एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्थापित करता है, दूसरी ओर; उसे आगमन और निगमन के बीच एक योजक कड़ी के रूप में प्रस्तुत करता है। सम्भवतः, यह न्यायशास्त्र के इतिहास में जैन-तार्किकों का स्याद्वाद और सप्तभंगी के सिद्धान्तों के बाद एक और मौलिक योगदान है। जैन-दार्शनिकों के इस योगदान का सम्यक् प्रकार से मूल्यांकन करने के लिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न भारतीय-दर्शनों में प्रस्तुत तर्क के स्वरूप की समीक्षा करके यह देखें कि जैनदर्शनं के द्वारा प्रस्तुत तर्क के स्वरूप की उनसे किस अर्थ में विशेषता है। अन्य भारतीय-दर्शनों में तर्क का स्वरूप __ भारतीय-दर्शनों में तर्क की प्रामाणिकता को स्वीकार करने वालों में जैन-दर्शन के साथ-साथ सांख्ययोग एवं मीमांसा-दर्शन का भी नाम आता है, किन्तु इन दर्शनों में जिन प्रसंगों में तर्क की प्रामाणिकता को स्वीकार किया, वे प्रसंग बिलकुल भिन्न हैं। सांख्यदर्शन के लिए ऊह या तर्क, वाक्यों के अर्थ-निर्धारण में भाषागत नियमों की उपयोग की प्रक्रिया है। डा. सुरेन्द्रनाथदास गुप्ता लिखते हैं- सांख्य के लिए ऊह शब्दों अथवा वाक्यों के अर्थ को निर्धारित करने के लिए मान्य भाषागत नियमों के प्रयोग की प्रक्रिया है (युक्त्या प्रयोग निरूपणमूहः-न्यायमंजरी, पृ. 588) पतंजलि ने भी व्याकरणशास्त्र के प्रयोजन हेतु ऊह की प्रामाणिकता को स्वीकार किया है, क्योंकि वेदादि में सभी लिंगों और विभक्तियों में मंत्रों का कथन