________________ जैन धर्म एवं दर्शन-365 जैन ज्ञानमीमांसा -73 है, इसीलिए दार्शमिकों ने कहा- "व्याप्तिज्ञानमूहः उहात् तन्निश्चय" अर्थात् व्याप्तिज्ञान ही तर्क है और तर्क से ही व्याप्ति (अविनाभाव या आपादन) का निश्चय होता है। जैन-दर्शन में तर्क-प्रमाण के इन लक्षणों की पुष्टि डा. बारलिगे ने न्यायदर्शन के तर्क के स्वरूप की समीक्षा करते हुए अनजाने में ही कर दी है। उनकी विवेचना के कुछ अंश हैं - "Tarka is something non-empirical, Tarka is that argument which goes to the root of Anuman and so is its pre-supposition or condition". It given the relation between Apadya and Apadak in its anuava of vyatireka form. It is clearly the knowledge of the implication which is evidently pre-supposed by any vyapti Tarka indicates the relation which is pre-supposed by vyapti. (See: A modern introduction to Indian Logic, p. 123-125) वस्तुतः, तर्क को अन्तर्बोधात्मक या अन्तःप्रज्ञात्मक प्रातिभ-ज्ञान कहना इ लिए आवश्यक है कि उनकी प्रकृति इन्द्रियानुभवात्मक ज्ञान अर्थात् लौ.ि क-प्रत्यक्ष (Empirical knowledge or preception) से और बौद्धिक निगमनात्मक अनुमान (Deductive inference) - दोनों से भिन्न है। तर्क अतीन्द्रिय (Non-empirical) और अति-बौद्धिक (Super rational) है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय एवं अमूर्त सम्बन्धों. Non-empirical relations) को अपने ज्ञान का विषय बनाता है। उसके विषय हैं - जाति-उपजाति-सम्बन्ध, जाति-व्यक्ति-सम्बन्ध, सामान्य-विशेष-सम्बन्ध, कार्यकारण-सम्बन्ध आदि। वह आपादन (Implication), अनुवर्तिता (Entailment), वर्ग-सदस्यता (Class membership), कार्यकरणता (Causality) और सामान्यता (Universality) का ज्ञान है। वह वस्तुओं को ही नहीं, अपितु उनके तात्विक स्वरूप एवं सम्बन्धों को भी जानता है, इसलिए उसे आपादन का ज्ञान (Knowledge of imlication) भी कहा जा सकता है। तर्क उन नियमों का दृष्टा (यहाँ मैं दृष्टा शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूँ) है, जिनके द्वारा विश्व की वस्तुएं परस्पर सम्बन्धित या असम्बन्धित हैं, जिनके आधार पर सामान्य वाक्यों की स्थापना कर उनसे अनुमान निकाले जाते हैं और जिन्हें पाश्चात्य आगमनात्मक-तर्कशास्त्र में कार्य-कारण