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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-364 - जैन ज्ञानमीमांसा-72 ज्ञान होता है, वही तर्क है। दूसरे शब्दों में, प्रत्यक्षादि के निमित्त से जिसके द्वारा अविनाभाव सम्बन्ध या कार्य-कारण-सम्बन्ध को जान लिया गया है, वही तर्क है। यह अविनाभाव सम्बन्ध तथा कार्य-कारण-सम्बन्ध सार्वकालिक और सार्वलौकिक होता है, अतः इसका ग्रहण इन्द्रिय-ज्ञान से नहीं होता है, अपितु अतीन्द्रिय-प्रज्ञा से होता है, अतः तर्क ऐन्द्रिक-ज्ञान नहीं, अपितु अतीन्द्रिय-प्रज्ञा है, जिसे हम अन्तःप्रज्ञा या अन्तर्बोधि कह सकते हैं। तर्क के इस अतीन्द्रिय स्वरूप का समर्थन प्रमाण-मीमांसा की स्वोपज्ञवृत्ति में स्वयं हेमचन्द्र ने किया है। __वे कहते हैं - व्याप्ति ग्रहण काले योगी व प्रमात्ता (2/5 वृत्ति), अर्थात व्याप्ति-ग्रहण के समय ज्ञाता योगी के समान हो जाता है। तर्क अविनाभाव को अपने ज्ञान का विषय बनाता है और यह अविनाभाव एक प्रकार का सम्बन्ध है, अतः तर्क सम्बन्धों का ज्ञान है। पुनः, यह अविनाभाव-सम्बन्ध सार्वकालिक एवं सार्वलौकिक होता है, अतः तर्क का स्वरूप सामान्य-ज्ञानात्मक होता है। अविनाभाव क्या है और उसका तर्क से क्या सम्बन्ध है - इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है- सहक्रमभाविनोः सहक्रमभावऽनियमो बिनाभावः ऊहात् तन्निश्चय - प्रमाणमीमांसा 2/10-11, अर्थात सहभावियों का सहभाव-नियम और क्रमभावियों का क्रमभाव-नियम ही अविनाभाव है और इसका निर्णय तर्क से होता है। ये सहभाव एवं क्रमभाव भी दो-दो प्रकार के हैं। सहभाव के दो भेद हैं- 1. सहकारी सम्बन्ध से युक्त, जैसे- रस और रूप, तथा 2. व्याप्त-व्यापक या व्यक्ति-जाति सम्बन्ध से युक्त, जैसे - बटत्व और वृक्षत्व। इसी प्रकार, क्रमभाव के भी दो भेद हैं - 1. पूर्ववर्ती और परवर्ती सम्बन्ध, जैसे - ग्रीष्म-ऋतु तथा 2. कार्य-कारण सम्बन्ध, जैसे - धूम और अग्नि / इस प्रकार, सहकार-सम्बन्ध, व्याप्त-व्यापक सम्बन्ध, व्यक्ति-जाति-सम्बन्ध, पूर्वोपर-सम्बन्ध और कार्य-कारण-सम्बन्ध के रूप नियम अविनाभाव है, इनका निश्चय तर्क के द्वारा होता है। इस प्रकार, तर्क सम्बन्धों और सम्बन्ध-नियमों का ज्ञान है। चूंकि ये सम्बन्ध पदों के आपादन (Implication) को सूचित करते हैं, अतः तर्क आपादन का निश्चय करना है और यह आपादन व्याप्ति की अनिवार्य शर्त है, अतः तर्क व्याप्ति का ग्राहक भी
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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