________________ जैन धर्म एवं दर्शन-363 जैन ज्ञानमीमांसा-71 महाभारत के 'तर्कोऽप्रतिष्ठो' आदि प्रसंगों में तर्क शब्द का प्रयोग इसी व्यापक अर्थ में हुआ है। 'तर्क' का एक दूसरा अर्थ भी है, जिसके अनुसार आनभविक एवं बौद्धिक-आधारों पर किसी बात को सिद्ध करने, पुष्ट करने या खण्डित करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को भी तर्क कहा जाता है। तर्क-शास्त्र, तर्क-विज्ञान आदि में तर्क शब्द इसी अर्थ का सूचक है, इसे आन्वीक्षकी भी कहा जाता है। यहाँ उसका अंग्रेजी पर्याय 'लाजिक' (Logic) है। इस प्रसंग में तर्क शब्द सामान्य रूप से सभी प्रमाणों को अपने में समाविष्ट कर लेता है। न्यायदर्शन में तर्क शब्द का प्रयोग एक तीसरे अर्थ में हुआ है, यहाँ वह चिन्तन की ऐसी अवस्था है, जो संशय से जनित दोलन में निर्णयाभिमुख है। इस प्रकार, वह संशय और निर्णय के मध्य निर्णयाभिमुख ज्ञान है। सांख्य, योग और मीमांसा-दर्शन में उसके लिए 'ऊह' शब्द का प्रयोग हुआ, जिसे भाषायी-विवेक कहा जा सकता है, किन्तु जैनदर्शन के तर्क-प्रमाण के प्रसंग में 'तर्क' शब्द का प्रयोग एक चौथे अत्यन्त सीमित और निश्चित अर्थ में हुआ है। यहाँ तर्क एक अन्तःप्रज्ञात्मक (Intuitive) सुनिश्चित ज्ञान है। उसे ‘सामान्य' का ज्ञान (Knowledge of universals) भी कहा जा सकता है। वस्तुतः, यह इन्द्रिय-ज्ञान के माध्यम से अतीन्द्रिय ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश है। ज्ञात से अज्ञात की खोज है। यहाँ तक वह पाश्चात्य-तर्कशास्त्र की आगमनात्मक कूदान (Inductive leap) का सूचक है। वह उन त्रैकालिक एवं सार्वलौकिक-सम्बन्धों का ज्ञान है, जिन्हें हम व्याप्ति-सम्बन्ध या कार्य-कारण-सम्बन्ध के रूप में जानते हैं और जिनके आधार पर कोई अनुमान निकाला जा सकता है। यह अनुमान की एक अनिवार्य पूर्व शर्त है, उसे हम विशेष से सामान्य की ओर, प्रत्यक्ष से अनुमान की ओर, अथवा .. आगमन से निगमन की ओर जाने का सेतु या प्रवेश-द्वार कह सकते हैं। प्रमाणमीमांसा में तर्क के उपर्युक्त स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया उपलम्भानुपलम्भ निमित्तं व्याप्तिज्ञानम् ऊहः - 2/5 अर्थात; उपलम्भ अर्थात् यह होने पर यह होता है और अनुपलम्भ अर्थात् यह नहीं होने पर यह नहीं होता है के निमित्त से जो व्याप्ति का