________________ जैन धर्म एवं दर्शन-362 . . जैन ज्ञानमीमांसा-70 में तर्क की उपयोगिता को भी निर्विवाद रूप से स्वीकार करता है। यद्यपि भारतीय-दर्शनों में सांख्य-योग तथा मीमांसा-दर्शन तर्क को 'प्रमाण' मानते हैं, किन्तु उनके तर्क को प्रमाण मानने के सन्दर्भ बिल्कुल भिन्न हैं। वे सन्दर्भ ज्ञानमीमांसा के न होकर भाषाशास्त्रीय एवं कर्मकाण्डीय हैं। ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में तो वे भी अपनी-अपनी प्रमाणों की मान्यता में तर्क को कोई स्वतन्त्र स्थान नहीं देते हैं। मात्र यही नहीं, मीमांसा-दर्शन तो व्याप्ति-निश्चय में भी तर्क की उपादेयता को स्वीकार नहीं करता है। इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारतीय-दर्शन में एकमात्र जैनदर्शन ही ऐसा दर्शन है, जो तर्क को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण की कोटि में रखता है। तर्क शब्द का अर्थ : सर्वप्रथम प्रमाण के पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व तर्क के अर्थों की जो विकास-यात्रा है, उस पर भी यहाँ विचार कर लेना अपेक्षित है। प्राचीन भारतीय-साहित्य में 'तर्क' शब्द का प्रयोग विविध अर्थों में होता रहा है और अर्थों की यह विविधता ही भारतीय-दर्शन में तर्क के स्वरूप के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धारणाओं के निर्माण के लिए उत्तरदायी भी है। यह दृष्टव्य है कि शब्दों का अनियत एवं विविध अर्थों में प्रयोग ही उनके सम्बन्ध में गलत धारणाओं को जन्म देता है, इसीलिए डा. बारलिगे न्यायदर्शन के तर्क-स्वरूप की समीक्षा करते हुए यह कहते हैं - "It is such a loose use of words which has been responsible for mis-carriage of the true import of words and concepts". (A modern Introduction to Indian Logic, p. 121) अतः तर्क-प्रमाण की चर्चा के प्रसंग में हमें यह भी देख लेना होगा कि तर्क शब्द के अर्थों में किस प्रकार का परिवर्तन होता रहा है। अपने व्यापक अर्थ में 'तर्क' शब्द उस बुद्धि-व्यापार का सूचक है, जिसे विमर्शात्मक-चिन्तन (Speculative Thinking) भी कहा जा सकता है। अभिधानराजेन्द्रकोश में तर्क के तर्कना, पर्यावलोचना, विमर्श, विचार आदि पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। इस प्रसंग में उसका अंग्रेजी पर्याय रीजनिंग (Reasoning) है। कठोपनिषद् के 'नैषां तर्केण मतिरापनेया', आचारांग के 'तक्क तत्थ न विज्जइ मयी तत्थ न गहिया', अथवा