________________ जैन धर्म एवं दर्शन-361 जैन ज्ञानमीमांसा-69 रूप में स्वीकृत किया गया है। जहाँ तक सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष या इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का प्रश्न है, उसे सभी भारतीय-दर्शनों ने प्रमाण माना है, चाहे उसके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में थोड़ा मतभेद रहा हो। परोक्ष-प्रमाणों में अनुमान और आगम को भी अधिकांश भारतीय-दर्शनों ने प्रमाण की कोटि में माना है। प्रत्यभिज्ञा को भी न्याय-दर्शन प्रत्यक्ष-प्रमाण के एक भेद के रूप में स्वीकार करता है, मात्र अन्तर यही है कि जहाँ जैन-दार्शनिक उसे परोक्ष-प्रमाण का भेद मानते हैं, वहाँ न्यायदर्शन उसे प्रत्यक्ष-प्रमाण का एक भेद मानता है। यद्यपि यह अन्तर अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि अकलंक ने भी उसे शब्द-संसर्ग से रहित होने पर सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष के अन्तर्गत मान ही लिया था। अपने स्वरूप की दृष्टि से भी प्रत्यभिज्ञान में ऐन्द्रिक-प्रत्यक्ष और स्मृति - दोनों का योग होता है, अतः वह आंशिक रूप से प्रत्यक्ष और आंशिक रूप से परोक्ष सिद्ध होता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि तर्क-प्रमाण जैन-दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों में केवल स्मृति और तर्क ही ऐसे हैं, जिन्हें अन्य दर्शनों में प्रमाण की कोटि में वर्गीकृत नहीं किया गया है। न्यायदर्शन प्रमा और अप्रमा के वर्गीकरण में स्मृति और तर्क - दोनों को ही अप्रमा अथवा अयथार्थ ज्ञान मानता है। यद्यपि अन्नम्भट्ट का वर्गीकरण थोड़ा भिन्न है। * वे पहले ज्ञान को स्मृति और अनुभव - इन दो भागों में वर्गीकृत करते हैं और बाद में अनुभव को यथार्थ और अयथार्थ - इन दो भागों में बाँट देते हैं। इस प्रकार, वे स्पष्ट रूप से स्मृति को अयथार्थ ज्ञान नहीं मानते हैं। अन्नम्भट्ट तर्क को अयथार्थ ज्ञान में ही वर्गीकृत करते हैं, यद्यपि वे उसे संशय और विपर्यय से भिन्न अवश्य मानते हैं। उन्होंने अयथार्थ ज्ञान के तीन भेद किये हैं -.1. संशय, 2. विपर्यय और 3. तर्क। इस प्रकार, हम देखते हैं कि न्यायदर्शन तर्क को प्रमाण की कोटि में नहीं रखता है, यद्यपि यह स्वतन्त्र प्रश्न है कि क्या संशय, विपर्यय और तर्क एक ही स्तर के ज्ञान हैं, या भिन्न-भिन्न स्तर के ज्ञान हैं ? क्या अयथार्थ ज्ञान का अर्थ भ्रमयुक्त या मिथ्या ज्ञान है ? जिस पर आगे विचार करेंगे। चाहे न्यायदर्शन ने तर्क को प्रमाण नहीं माना हो, फिर भी वह अपने षोडश पदार्थों में तर्क को एक स्वतन्त्र स्थान तो देता ही है तथा व्याप्ति-स्थापना