________________ जैन धर्म एवं दर्शन-360 जैन ज्ञानमीमांसा-68 सम्भव नहीं था, क्योंकि प्रत्यक्ष, चाहे वह इन्द्रिय-प्रत्यक्ष हो या अनिन्द्रिय मानस-प्रत्यक्ष हो, त्रैकालिक एवं सार्वलौकिक-व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता था, दूसरी ओर, अनुमान तो स्वयं व्याप्ति पर निर्भर था, अतः प्रत्यक्ष और अनुमान के बीच एक सेतु की आवश्यकता थी जिसे तर्क को प्रमाण मानकर पूरा किया गया। 'तर्क' को प्रमाण के पद पर प्रतिष्ठित करने के साथ ही अकलंक के सामने दूसरी महत्वपूर्ण समस्या यह थी कि उसे सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में से किस प्रमाण के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जावे? चूँकि तत्त्वार्थसूत्र-भाष्य में ईहा का. अन्तर्भाव सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष में होता था, अतः सूत्रकार के मत की रक्षा करने हेतु उसका समावेश सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष में होना था, किन्तु प्रत्यक्ष का ही एक भेद होने की स्थिति में तर्क व्याप्ति का ग्राहक नहीं बन सकता था - इस हेतु उसके बौद्धिक, विमर्शात्मक एवं सामान्य ज्ञानात्मक स्वरूप पर बल देना भी जरूरी था और यह तभी सम्भव था, जबकि उसे शब्द–संसर्गयुक्त एवं ऐन्द्रिक तथा मानसिक-प्रत्यक्ष से भिन्न स्वतन्त्र प्रमाण माना जावे, किन्तु ऐसी स्थिति में उसे परोक्ष-प्रमाण में वर्गीकृत करना जरूरी था। अकलंक ने दोनों ही दृष्टिकोणों की रक्षा हेतु यह माना कि 'तर्क आदि जब शब्द-संसर्ग से रहित हों, तो उनका समावेश सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष में और शब्द-संसर्ग से युक्त हों, तो उनका समावेश परोक्ष श्रुतज्ञान में करना चाहिए, लेकिन परम्परा की रक्षा करने का उनका यह प्रयास सफल नहीं हुआ और उत्तरकालीन अनन्तवीर्य, विद्यानन्द आदि सभी जैन-तार्किकों ने तर्क का समावेश परोक्ष-प्रमाण में ही किया। जैन-तार्किकों का प्रमाणों का सर्वमान्य वर्गीकरण तर्क का अन्तर्भाव परोक्ष-प्रमाण में ही करता है। सभी जैन-तार्किकों ने परोक्ष-प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम- ऐसे पाँच भेद किये हैं, केवल एक अपवाद है - न्याय-विनिश्चय के टीकाकार वादीराजसूरि। उन्होंने पहले परोक्ष के दो भेद किये - 1. अनुमान और 2. आगम और फिर अनुमान के मुख्य और गौण - ऐसे दो भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का अन्तर्भाव गौण अनुमान में किया है। जैनदर्शन द्वारा स्वीकृत इस प्रमाण योजना को अतीन्द्रिय आत्मिक-प्रत्यक्ष के रूप में एवं न्यायदर्शन में योगज-प्रत्यक्ष के