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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-359 जैन ज्ञानमीमांसा -67 नहीं है। एक विशेषता यह भी देखने को मिलती है कि स्थानांगसूत्र में इनके लिए प्रमाण शब्द का प्रयोग न होकर 'हेत' और 'व्यवसाय' शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुझे ऐसा लगता है कि यहाँ 'हेतु' का तात्पर्य प्रामाणिक ज्ञान के साधनों से और 'व्यवसाय' का तात्पर्य ज्ञानात्मक-व्यापार के स्वरूप से है, जोकि अपने लाक्षणिक अर्थ में प्रमाण-चर्चा से भिन्न नहीं है। ध्यान देने योग्य दूसरी बात यह है कि स्थानांगसूत्र में व्यवसाय के अन्तर्गत केवल तीन प्रमाणों की और हेतु के अन्तर्गत चार प्रमाणों की चर्चा उपलब्ध है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-न्याय में प्रमाण-चर्चा के प्रसंग में भी आगम युग तक 'तर्क' को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया था। यद्यपि इसकी सम्भावना के बीज आगम-साहित्य में तथा तत्त्वार्थसूत्र में अवश्य ही उपस्थित थे, क्योंकि नन्दीसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, स्मृति, संज्ञा, प्रज्ञा और मति को पर्यायवाची मान लिया गया था। इसी प्रकार, उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य में भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को एक ही अर्थ का वाचक माना था। मेरी दृष्टि में यहाँ इन्हें पर्यायवाची या एकार्थवाचक कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि ये सब मतिज्ञान के ही विभिन्न रूप हैं। उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में 'ईहा के पर्याय के रूप में भी तर्क और ऊह - इन दोनों शब्दों का स्पष्ट उल्लेख है। क्योंकि ईहा अवगृहीत अर्थ (पदार्थ) के विशेष स्वरूप को जानने की आकांक्षा के रूप में गुण-दोष विचारात्मक ज्ञान व्यापार ही है, अतः उसका पर्याय तर्क या ऊह हो सकता है, फिर भी यहाँ तर्क को ईहा से पृथक् एक स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना गया है, साथ ही, 'तर्क प्रमाण' में 'तर्क शब्द का जो अर्थ गृहीत है, वह भी यहाँ अनुपस्थित ही है। इससे प्रमाण-चर्चा के प्रसंग में तर्क' शब्द का जो अर्थ-विकास हुआ है, वह एक परवर्ती घटना ही सिद्ध होता है, फिर भी, ये सब बातें एक ऐसी आधारभूमि तो अवश्य प्रस्तुत कर रही थीं, जिसके सहारे अकलंक के द्वारा सातवीं शती में तर्क को प्रमाण के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सका। वस्तुतः, तर्क को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण मानना इसलिए आवश्यक हो गया कि उसके बिना व्याप्तिग्रहण की समस्या का सही हल प्रस्तुत कर पाना
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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