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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-358 जैन ज्ञानमीमांसा-66 बिना सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक सम्बन्ध को जाना ही नहीं जा सकता . था। यह सत्य है कि प्रत्यभिज्ञा में दो विशेष ज्ञानों के मध्य तुलना होती है, किन्तु उन दोनों विशेष ज्ञानों की समरूपता ही हमें एक सामान्य निर्णय की ओर ले जाती है। यह सत्य है कि व्याप्तिसम्बन्ध हेतु इन दोनों विशेष ज्ञानों से सामान्य की दिशा में छलांग लगानी होती है और इस हेतु जैनों ने एक अन्य प्रमाण की संकल्पना की है, जिसे वे ऊह या तर्क कहते हैं। इस प्रकार, जब हम प्रत्यक्ष से स्मृति, स्मृति से प्रत्यभिज्ञा और प्रत्यभिज्ञा से ऊह या तर्क-प्रमाण की ओर जाते हैं, तो व्याप्तिसम्बन्ध की स्थापना होती है और इसी व्याप्ति के आधार पर ही अनुमान प्रमाणरूप होता है। 4. जैन-दर्शन का तर्क-प्रमाण' तर्क की प्रमाण के रूप में प्रतिस्थापना का ऐतिहासिक-परिप्रेक्ष्य भारतीय दर्शनों में केवल जैन-दर्शन की ही यह विशेषता है कि वह प्रमाण-विवेचन में तर्क को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानता है, फिर भी हमें इतना ध्यान अवश्य ही रखना होगा कि प्रमाण के रूप में तर्क-प्रतिस्थापना जैन-न्याय की विकास यात्रा का एक परवर्ती चरण है। तत्त्वार्थसूत्र और श्वेताम्बर-आगम नन्दीसूत्र में तो हमें ज्ञान और प्रमाण के बीच भी कोई विभाजक-रेखा ही नहीं मिलती है, उनमें पाँचों ज्ञानों को ही प्रमाण मान लिया गया है (मति श्रुतावधिः पर्यायकेवलानिज्ञानम् / तत् प्रमाणे-तत्त्वार्थ 1/6-10), किन्तु श्वेताम्बर-आगम भगवती, स्थानांग और अनुयोगद्वार में प्रमाणों का स्वतन्त्र विवेचन उपलब्ध है। उनमें कहीं प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम - इन तीन प्रमाणों की और कहीं प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम - इन चार प्रमाणों की चर्चा मिलती है। सम्भवतः, प्रमाणों का यह स्वतन्त्र विवेचन आगम-साहित्य में सर्वप्रथम अनुयोगद्वार में किया गया को, क्योंकि भगवतीसूत्र में उनका नाम-निर्देश करके यह कह दिया गया है कि 'जहा अणुओगद्वारे', अर्थात् अनुयोगद्वारसूत्र के समान ही इन्हें यहाँ भी समझ लेना चाहिए। यद्यपि इन आधारों पर नन्दिसूत्र, अनुयोगद्वार, स्थानांग और भगवती के वर्तमान पाठों की पूर्वापरता के प्रश्न को एक नये सन्दर्भ में विचारा जा सकता है, किन्तु प्रस्तुत चर्चा के लिए यह आवश्यक
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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