________________ जैन धर्म एवं दर्शन-357 जैन ज्ञानमीमांसा -65 प्रत्यभिज्ञान प्रमाण नहीं होगा, तो फिर अनुमान भी प्रमाण नहीं होगा, क्योंकि अनुमान जिस व्याप्ति-सम्बन्ध के बोध पर आधारित है, उस व्याप्ति-सम्बन्ध के बोध में प्रत्यभिज्ञा ही साधक है। बौद्ध-दार्शनिक क्षणिकवादी होने के कारण प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण नहीं मानकर भ्रांतिरूप मानते हैं। इनका सिद्धान्त है कि जब वस्तु का लक्षण प्रतिक्षण बदलने का है, तो बदलने वाले को प्रत्यभिज्ञान कैसे मान सकते हैं ? प्रत्यक्ष को ही प्रत्यभिज्ञान मानना चाहिए। इसकी समीक्षा करते हुए रत्नप्रभ लिखते हैं कि प्रत्यक्ष में तो सिर्फ वर्तमान की वस्तु का ही बोध होता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञान में भूत एवं वर्तमान- दोनों का बोध होता है। नैयायिक आदि प्रायः सभी भारतीय-दार्शनिकों ने प्रत्यभिज्ञा को स्वतन्त्र प्रमाण तो नहीं माना, किन्तु उसे व्याप्तिस्थापन में सहायक मानने से इंकार भी नहीं किया है, जबकि बौद्ध-दार्शनिकों ने प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणरूपता का स्पष्ट खण्डन किया है और उसे भ्रान्तज्ञान कहा है। उनके अनुसार, प्रत्यभिज्ञा एकं तुलनात्मक एवं संकलनात्मक ज्ञान है, जबकि उनकी क्षणिकवादी तत्त्वमीमांसा में ऐसा तुलनात्मक ज्ञान अर्थात् 'यह वही है, सम्भव ही नहीं है, क्योंकि कोई सत्ता दो क्षण भी एकरूप नहीं रहती है, अतः दो तथ्यों के मध्य तुलनात्मक एवं संकलनात्मक ज्ञान प्रामाणिक या अभ्रांत नहीं हो सकता है। चाहे बौद्ध-दार्शनिक अपनी तत्त्वमीमांसा के प्रति सत्यनिष्ठ रहते हुए प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण नहीं मान सके हों, किन्तु व्याप्तिस्थापन में एवं व्यावहारिक-जीवन में उसकी उपयोगिता से इंकार भी तो नहीं किया जा सकता है। बौद्धों को भी यह तो मानना होगा कि बिना किसी सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य की कल्पना के व्याप्तिसम्बन्ध की स्थापना को सिद्ध नहीं किया जा सकता है और व्याप्तिसम्बन्ध. के अभाव में उनके द्वारा मान्य अनुमान प्रमाण भी नहीं हो सकता है। नैयायिकों ने प्रत्यभिज्ञा को स्वतन्त्र प्रमाण इसलिए नहीं माना, क्योंकि उन्होंने व्याप्तिस्थापन हेतु प्रत्यक्ष के एक भेद के रूप में सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति को मान रखा था, किन्तु जैनों के लिए व्याप्ति हेतु सादृश्य या वैदृश्य सम्बन्धरूप प्रत्यभिज्ञा जैसे तुलनात्मक एवं संकलनात्मक ज्ञान को प्रमाणभूत मानना आवश्यक था, क्योंकि तुलना के