________________ जैन धर्म एवं दर्शन-356 जैन ज्ञानमीमांसा-64 है कि यह उसके समान (सदृश्य) है, अथवा यह उससे भिन्न (वैदृश्य) है। ऐसे सदृश्य या वैदृश्य के बोध को ही प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। यह एक तुलनात्मक ज्ञान है। व्याप्तिसम्बन्ध की स्थापना के लिए सादृश्य का बोध और व्याप्ति- संबंध के निषेध के लिए वैदृश्य का बोध सहायक होता है। इससे हमें दो तथ्यों के मध्य व्याप्तिसम्बन्ध की स्थापना में सहायता मिलती है। इसे ही प्रत्यभिज्ञा-प्रमाण कहते हैं। भूतकाल की अनुभूति और वर्तमान के प्रत्यक्ष के आधार पर यह निश्चय करना कि 'यह वही है - प्रत्यभिज्ञा का ही एक रूप है, अतः प्रत्यभिज्ञा दो कालों के अनुभवों का एक संकलन है, जिसमें उन अनुभवों की सादृश्यता या वैदृश्यता का निर्णय किया जाता है। इस प्रकार, प्रत्यभिज्ञा एक संकलनात्मक एवं तुलनात्मक ज्ञान है, इसमें कभी भूतकालीन स्मृति और वर्तमानकालीन प्रत्यक्ष का संकलन होता है, जैसे - ये वही मुनि हैं, अथवा ये उनके समान हैं, अथवा ये उनसे भिन्न हैं, अथवा ये उनसे छोटे हैं, अथवा ये उनसे बड़े हैं, किन्तु प्रत्यभिज्ञा में केवल भूतकालीन स्मृति और वर्तमानकालीन प्रत्यक्ष का ही संकलन एवं तुलना नहीं होती है, अपितु उसमें कभी-कभी दो प्रत्यक्षों का भी संकलन होता है, अथवा कभी दो स्मृतियों का भी संकलन होता है। दो प्रत्यक्षों के संकलन में ऐसा ज्ञान होता है कि 'यह इसके समान है, अथवा 'यह इससे भिन्न है, या 'यह इससे छोटा है', अथवा 'यह इससे बड़ा है / इसी प्रकार, कभी-कभी दो स्मृतियों के संकलन एवं तुलना में भी प्रत्यभिज्ञा होती है, जैसे - 'वह उससे भिन्न है', अथवा 'वह उसके समान है, अथवा 'वह उससे छोटा है, या 'वह उससे बड़ा है / इस प्रकार, यह सत्य है कि प्रत्यभिज्ञा एक संकलनात्मक ज्ञान है, किन्तु यह संकलन एवं तुलना भी तीन रूपों में होती है - प्रथमतः, उसमें यह संकलन या तुलना भूतकालीन स्मृति और वर्तमानकालीन प्रत्यक्ष में भी होती है, तो कभी वर्तमानकालीन दो प्रत्यक्षों में भी होती है, अथवा कभी भूतकालीन दो स्मृतियों में भी होती है। जैन-दार्शनिकों के अनुसार, यह संकलनात्मक एवं तुलनात्मक बोध व्याप्तिसम्बन्ध की स्थापना अथवा व्याप्तिसम्बन्ध के निषेध के लिए आवश्यक होता है, इसके बिना व्याप्तिसम्बन्ध का ऐसा प्रामाणिक-बोध नहीं होता है, जो अनुमान का आधार बन सके, अतः प्रत्यभिज्ञान भी एक प्रमाण है। यदि