________________ जैन धर्म एवं दर्शन-355 जैन ज्ञानमीमांसा-63 अतः, जैन आचार्यों के लिए यह आवश्यक था कि वे स्मृति को अर्थात् भूतकाल में अनुभूत संस्कारों के वर्तमान में जाग्रत होने को प्रमाणभूत माने, यही स्मृति की प्रमाणरूपता का आधार है। इसे अनुमान में सहायक होने से ही लगभग 12वीं शती में वादिराजसूरी ने इसे अनुमान-प्रमाण का ही एक अंश मान लिया था, परन्तु अंश के प्रमाणभूत हुए बिना अंशी भी अर्थात् अनुमान भी प्रमाणरूप नहीं होगा, अतः, स्मृति प्रमाणरूप है - यही सिद्ध होता है। __ जैन-दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों में केवल स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क ही ऐसे हैं, जिन्हें अन्य दर्शनों में प्रमाण की कोटि में वर्गीकृत नहीं किया गया है। न्यायदर्शन प्रमा और अप्रमा के वर्गीकरण में स्मृतिजन्य ज्ञान और तर्कजन्य ज्ञान - दोनों को ही अप्रमा अथवा अयथार्थ ज्ञान मानता है। यद्यपि अन्नम्भट्ट का वर्गीकरण थोड़ा भिन्न है। वे पहले ज्ञान को स्मृति और अनुभव - इन दो भागों में वर्गीकृत करते हैं और बाद में अनुभव को यथार्थ और अयथार्थ - इन दो भागों में बाँट देते हैं। इस प्रकार, वे स्पष्ट रूप से स्मृति को अयथार्थ ज्ञान नहीं मानते हैं। अन्नम्भट्ट तर्क को अयथार्थ ज्ञान में ही वर्गीकृत करते हैं। यद्यपि वे उसे संशय और विपर्यय से भिन्न अवश्य मानते हैं। उन्होंने अयथार्थ ज्ञान के तीन भेद किये हैं - 1. संशय, 2. विपर्यय और 3. तर्क / इस प्रकार, हम देखते हैं कि न्यायदर्शन स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि के समान तर्क को भी प्रमाण की कोटि में नहीं रखता है, यद्यपि यह स्वतन्त्र प्रश्न है कि क्या संशय, विपर्यय और तर्क एक ही स्तर के ज्ञान हैं या भिन्न-भिन्न स्तर के ज्ञान हैं ? क्या अयथार्थ ज्ञान का अर्थ भ्रमयुक्त या मिथ्या ज्ञान है ? जिस पर हम आगे विचार करेंगे। चाहे न्याय-दर्शन ने तर्क को प्रमाण नहीं माना हो, फिर भी वह अपने षोडश पदार्थों में तर्क को एक स्वतन्त्र स्थान तो देता ही है। 3. प्रत्यभिज्ञा-प्रमाण . भूतकाल और वर्तमानकाल की अनुभूति के मध्य सादृश्य या वैदृश्य के अनुभव को ही प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। इसमें भूतकाल के प्रत्यक्ष से जनित अनुभूति के संस्कारों और वर्तमान की प्रत्यक्षजनित अनुभूति के संस्कारों के मध्य एक तुलना होती है और उस तुलना के माध्यम से यह बोध होता