________________ .. जैन धर्म एवं दर्शन-354 जैन ज्ञानमीमांसा-62 क्षणिकवाद और सन्ततिवाद में स्मृति को प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता, क्षणजीवी वस्तु की स्मृति यथार्थ नहीं होगी, क्योंकि उस वस्तु के अभाव में उसकी प्रमाणरूपता सिद्ध नहीं हो सकती है। यहाँ जैनों का कथन है कि स्मृति को प्रमाणभूत माने बिना प्रत्यभिज्ञान प्रमाणरूप नहीं होगा और उसके प्रमाणरूप हुए बिना अनुमान की आधार व्याप्ति भी प्रमाणरूप नहीं होगी। बौद्ध- दार्शनिकों ने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को जो प्रमाण-रूप नहीं माना, उसका मुख्य कारण उनकी क्षणभंगवादी तत्त्वमीमांसा ही है। न्यायदर्शन में भी स्मृति को प्रमाणरूप नहीं माना था, उसका कारण यह था कि उनके यहाँ प्रत्यक्ष के एक विभाग के रूप में सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति को स्वीकार किया गया था, जिसके आधार पर व्याप्तिसंबंध की स्थापना हो सकती थी, किन्तु जैनों के लिए यह आवश्यक था कि वे व्याप्ति-संबंध की स्थापना के लिए तर्क या ऊह को प्रमाणरूप मानें और तर्क को प्रमाणरूप मानने के लिए प्रत्यभिज्ञान को प्रमाणरूप मानना आवश्यक होगा और प्रत्यभिज्ञान को प्रमाणरूप मानने के लिए स्मृति को प्रमाणरूप मानना ही होगा। यदि स्मृति प्रमाणरूप नहीं होगी, तो प्रत्यभिज्ञान (पहचान) भी प्रमाणरूप नहीं होगा और बिना प्रत्यभिज्ञान या पहचान को प्रमाणभूत माने दो तत्त्वों के मध्य त्रैकालिक व्याप्तिसंबंध की स्थापना सम्भव नहीं होगी और व्याप्तिसम्बन्ध के बिना अनुमान भी संभव नहीं होगा। अतः, जैनन्याय की यह विशेषता थी कि उसे स्मृप्ति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को भी प्रमाणरूप मानना पड़ा है। स्मृति का अर्थ है भूतकाल के अनुभवों का वर्तमान में पुनः जाग्रत हो जाना, अतः स्मृति का संबंध भूत और वर्तमान - दोनों से होता है। वर्तमानकाल में किसी निमित्त को पाकर वर्तमान में उस भूतकालीन अनुभूति के संस्कारों को पुनः चेतना के स्तर पर आ जाना, भूतकालीन अनुभूति का वर्तमान में सजग हो जाना ही स्मृति है। यह दो कालों की अनुभूतियों का संकलन है। इस आधार पर यह भी कह सकते हैं कि स्मृति भी संकलनात्मक ज्ञान है। हेतु से जो साध्य के त्रैकालिक संबंध का बोध होता है, उसमें स्मृति एक प्रमाणभूत घटक है। यदि स्मृति को प्रमाणभूत नहीं मानेंगे, तो अनुमान की प्रमाणभूतता पर भी प्रश्नचिह्न लग सकता है।