________________ जैन धर्म एवं दर्शन-350 जैन ज्ञानमीमांसा-58 श्रवणेन्द्रिय को दिग्देश का ज्ञान होता है, वह यह जानती है कि शब्द कितनी दूरी से एवं किस दिशा से आ रहा है, अतः श्रवणेन्द्रिय भी अप्राप्यकारी है, क्योंकि उसे दिग्देश का ज्ञान होता है। जैनाचार्यों ने उनकी इस मान्यता का खण्डन स्वयं उन्हीं की मान्यता से किया है। रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभसूरि लिखते हैं कि आप (बौद्ध) यह मानते हो कि घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय प्राप्यकारी हैं। इन दोनों इन्द्रियों को अपने विषयों के दिग्देश का ज्ञान होता है। घ्राणेन्द्रिय यह जानती है कि किस फूल की सुगन्ध किस दिशा से आ रही है, इसी प्रकार, स्पर्शेन्द्रिय वायु के स्पर्श से यह भी जान लेती है कि यह शीतल वायु किस दिशा से आ रही है। यदि घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय दिग्देश का ज्ञान रखते हुए भी प्राप्यकारी हैं, तो फिर श्रवणेन्द्रिय दिग्देश का ज्ञान रखते हुए प्राप्यकारी क्यों नहीं हो सकती है। इस पर भी यदि बौद्धं यह कहें कि घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय को दिग्देश का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है, वे अनुमान से ही दिग्देश का ज्ञान प्राप्त करती हैं, उन्हें दिग्देश का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है, इस संबंध में जैनों का उत्तर यह है - घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के समान ही श्रोत्रेन्द्रिय को भी दिग्देश का ज्ञान तो अनुमान से होता है, क्योंकि दिग्देश का ज्ञान उसका अपना विषय नहीं है, अतः घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के समान श्रवणेन्द्रिय को भी प्राप्यकारी मानना होगा। पुनः, यदि श्रवणेन्द्रिय अप्राप्यकारी होती, तो अनुकूल वायु से दूर के शब्द का भी ज्ञान और प्रतिकूल वायु के समीप के शब्द के ज्ञान का अभाव कैसे सिद्ध होता? इससे सिद्ध होता है कि श्रवणेन्द्रिय अपने विषय 'शब्द' को संस्पर्श करके ही जानती है, अतः वह प्राप्यकारी है। पुनः, बौद्धों का तर्क यह भी है कि यह श्रवणेन्द्रिय प्राप्यकारी है, तो बन्द कमरे में बाहर के शब्द का ज्ञान कैसे हो जाता है ? इस संबंध में जैनों का उत्तर यह है कि जिस प्रकार बन्द कमरे में वायु के सहारे बाहर रहे हुए कर्पूर आदि सुगन्धित द्रव्यों की गंध प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वायु के सहारे शब्द-ध्वनि भी कमरे में प्रवेश कर जाती है, अतः घ्राणेन्द्रिय के समान श्रवणेन्द्रिय भी प्राप्यकारी है।