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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-349 जैन ज्ञानमीमांसा-57 का संस्पर्श करके उसे जानता है- यह सिद्ध नहीं होता है। . पुनः, नैयायिकों के द्वारा यह कहा जाये कि रसनेन्द्रिय के समान चक्षु भी बाह्येन्द्रिय है, अतः वह भी बाह्यार्थ को संस्पर्श करके ही उसे जानती है, तो उनका यह कथन भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि जो भी बाह्येन्द्रिय होती हैं, वे सब प्राप्यकारी ही होती हैं - ऐसा नियम या व्याप्ति नहीं है। बाह्यार्थ चक्षु के समीप आकर न तो चक्षु का संस्पर्श करते हैं और न चक्षु को बाह्यार्थों के समीप जाकर उनका संस्पर्श करते देखा जाता है, अतः चक्षु अप्राप्यकारी है। अन्य इन्द्रियों के विषय जैसे उन-उन इन्द्रियों के संस्पर्श करते हैं, वैसे चक्षु के विषय उसका संस्पर्श नहीं करते हैं, अतः चक्षु-इन्द्रिय प्राप्यकारी सिद्ध नहीं होती है। चक्षु के अप्राप्यकारित्व के विषय में जैनाचार्यों का एक तर्क यह है कि यदि चक्षु प्राप्यकारी है, तो उसे अपना संस्पर्श करते रहे हुए अति निकटवर्ती अंजन आदि को भी जानना चाहिए, क्योंकि स्पर्शेन्द्रिय आदि जो भी प्राप्यकारी इन्द्रियाँ हैं, वे अपने अति निकटवर्ती संस्पर्शित अपने विषय को जानती हैं, जबकि चक्षु अपना स्पर्श करते रहे हुए अंजन आदि के रूप को जानने में समर्थ नहीं है, अतः चक्षु अप्राप्यकारी है, वह दूर से ही अपने विषयों का ग्रहण करती है। बौद्धसम्मत श्रवणेन्द्रिय की अप्राप्यकारिता की समीक्षा ज्ञातव्य है कि जैनाचार्यों ने जहाँ एक ओर नैयायिक आदि दार्शनिकों के चक्षु के प्राप्यकारित्व का खण्डन किया, वहीं दूसरी ओर, उन्होंने बौद्धों के श्रवणेन्द्रिय के अप्राप्यकारित्व का भी खण्डन किया है। बौद्धों का मानना है कि श्रवणेन्द्रिय भी अप्राप्यकारी है और वह भी अपने विषय को बिना संस्पर्श किये ही जान लेती है, वह दूरस्थ ध्वनि का ग्रहण करती है, किन्तु जैनाचार्य उनके मंतव्य से सहमत नहीं हैं, वे नैयायिकों के समान ही श्रवणेन्द्रिय को प्राप्यकारी ही मानते हैं। .. श्रवणेन्द्रिय को अप्राप्यकारी सिद्ध करने के लिए बौद्धों का प्रथम तर्क यह है कि जो इन्द्रिय प्राप्यकारी होती है अर्थात् अपने विषय का 'संस्पर्श करके जानती है, उसे दिग्देश अर्थात् दूरी और निकटता का तथा पूर्व-पश्चिम आदि दिशा का बोध नहीं होता है, जैसे रसनेन्द्रिय को अपने विषय की दूरी, निकटता आदि दिग्देश का ज्ञान नहीं होता है, जबकि
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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