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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-348 जैन ज्ञानमीमांसा-56 साथ प्रतीत होते हैं, जैसे - सुई से सौ कमल-पत्तों को छेदते हुए भी हम उन्हें क्रमशः छेदते हैं, किन्तु ऐसा लगता है कि हमने उन्हें एक साथ छेद दिया। इस सम्बन्ध में जैन-दार्शनिकों का उत्तर यह है कि चाक्षुषज्ञान में अनेक विषयों का जो बोध होता है, उसमें क्रम नहीं होता है। चक्षुरिन्द्रिय अनेक विषयों को एक साथ जानती है। भीड़ में हम अनेक मनुष्यों के अंग-प्रत्यंगों और उनकी वेशभूषा आदि को एक साथ जानते हैं। जैनों के इस आक्षेप का कि यदि चक्षु प्राप्यकारी है, तो वह अपने से बृहत्काय पर्वत आदि को संस्पर्श करके नहीं जान सकती है, नैयायिकों का उत्तर यह है कि चक्षु वास्तविक इन्द्रिय नहीं है, वास्तविक इन्द्रिय तैजस है और तेजस जैसे दीपक आकार में छोटा होकर भी अपने प्रकाश को व्याप्त करके सम्पूर्ण कमरे (कक्ष) की वस्तुओं को प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार तैजस या रश्मिचक्र भी फैलकर चक्ष से बृहत्काय वस्तुओं को प्रकाशित कर जान लेता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनों का कथन है कि प्रकाश तो पौद्गलिक है और उसका फैलना या व्याप्त होना प्रत्यक्ष अनुभव में आता है, जबकि चक्षु-तैजस या रश्मिचक्र का व्याप्त होना अनुभव में नहीं आता है, अतः जब चक्षु-तैजस का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं है, तो उसके व्याप्त होने का कथन कैसे स्वीकार किया जा सकता है। दूसरे, जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि यदि चक्षु-तैजस को अमूर्त (अनुद्भूत रूपवाला) मानकर उसे व्याप्त माना जाये, जैसे- आकाश, तो ऐसी स्थिति में उसे विश्व के समस्त पदार्थों का एक साथ दृष्टा या प्रकाशक मानना होगा और तब व्यक्ति चक्षु के माध्यम से विश्व के समस्त पदार्थों का दृष्टा-ज्ञाता हो जायेगा, किन्तु यह सत्य नहीं है। हम दीवार आदि के उस पार के पदार्थों को भी नहीं जान पाते हैं, चक्षु का तैजस न तो अमूर्त माना जा सकता है और न व्यापक गुण वाला। यदि कहा जाये कि जैन भी अमूर्त आत्मा को मात्र शरीरव्यापी मानते हैं, सर्वव्यापी नहीं, तो फिर चक्षु-तैजस को चक्षु में ही व्याप्त मानना होगा, साथ ही, यदि नैयायिक उसे प्रसारणशील मानता है, तो प्रसारण को दृश्य मानना पड़ेगा। जैन प्रकाश को प्रसारणशील मानते हैं, किंतु उनके अनुसार प्रकाश पौद्गलिक है और दृश्य है, जबकि नैयायिकों को तैजस दृश्य नहीं है, अतः चक्षु से तैजस निकलकर बाह्यार्थ
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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