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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-347 जैन ज्ञानमीमांसा-55 प्रत्युत्तर यह है कि अनुमान तो व्याप्ति पर निर्भर होता है और व्याप्ति-ज्ञान की संस्थापना बिना प्रत्यक्ष के सम्भव नहीं है, अतः जिसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, उसकी व्याप्ति-स्थापना सम्भव नहीं है और जहाँ व्याप्ति-ज्ञान नहीं है, वहाँ अनुमान नहीं है। यदि यह कहा जाये कि बिल्ली, शेर, वृषभ आदि की आँखों में प्रभा (चमक) देखी जाती है, किन्तु वह प्रभा नैत्रस्थित प्रतीत होती है, बाहर जाती हुई प्रतीत नहीं होती है, अतः इस तर्क के आध पार पर चक्षु प्राप्यकारी सिद्ध नहीं होता है, यदि यह कहा जाए कि आँख में लगे हुए अंजन का प्रत्यक्ष नहीं होता है, फिर भी वह चक्षु-ज्ञान की निर्मलता का कारण होता है, उसी तरह, चाहे तैजस का प्रत्यक्ष न हो, फिर भी वह चाक्षुष-ज्ञान का हेतु होता है। नैयायिकों के इस तर्क का उत्तर देते हुए जैन-दार्शनिक कहते हैं कि चक्षु में अंजन की उपस्थिति चाहे वह चक्षु नहीं देख पाए, किन्तु अन्य व्यक्ति के चक्षु से तो उसका भी प्रत्यक्ष होता है। दूसरा व्यक्ति यह जान लेता है - इस आँख में अंजन है और इस आँख में नहीं। पुनः, जैसे अंजन द्रव्य का अस्तित्व है, वैसे ही चाहे प्रभा (रश्मिचक्र) का अस्तित्व हो भी, किन्तु चक्षु से प्रभा को बाहर जाते हुए तो देखा नहीं जाता है। उल्ल, बिल्ली आदि अन्धेरे में इसलिए नहीं देखते हैं किं उनकी आँखों से रश्मिचक्र (तंजोद्रव्य) बाहर जाता है, यदि ऐसा होता, तो फिर मनुष्य भी अंधकार में देखने में उतना ही सक्षम होना था, क्योंकि तेजोद्रव्य दोनों की चक्षुओं में है। वास्तविकता यह है कि उनकी आँखों की पुतलियाँ अंधेरे में अधिक फैलकर प्रतिछाया को ग्रहण करने में अधिक समर्थ होती हैं। उनकी आँखों की रश्मि निकलकर बाहर नहीं जाती है। पुनः, प्रभा या रश्मि या तो सूक्ष्म होगी या विभु: यदि वह सूक्ष्म है, तो स्थूल पदार्थों का समग्र रूप से संस्पर्श नहीं कर पाएगी और यदि वह व्यापक है, तो फिर सभी को एक साथ जान लेगी, किन्तु ऐसा होता नहीं है। चक्षु दीवार आदि की ओट में रहे हुए विषयों को नहीं जान पाती है, अतः चक्षु प्राप्यकारी नहीं हो सकती है। यदि नैयायिकों की ओर से यह कहा जाये कि चक्षु निकटस्थ और दूरस्थ पदार्थों को एक साथ न जानकर क्रमपूर्वक ही जानती है, वह तैजस पहले निकटस्थ पदार्थ का ग्रहण करते हैं और फिर दूरस्थ को, किन्तु समय का अन्तराल इतना कम होता है कि वे एक
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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