________________ जैन धर्म एवं दर्शन-346 जैन ज्ञानमीमांसा-54 वीं शती) आदि ग्रन्थों में इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व के प्रश्न पर न केवल स्वपक्ष का मंडन है, अपितु प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व के प्रश्न पर नैयायिकों और बौद्धों के मतों की विस्तार से समीक्षा भी की गई है। चक्षु के प्राप्यकारित्व के सम्बन्ध में नैयायिकों की समीक्षा यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पाँचों इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व के प्रश्न पर वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य–दार्शनिक भी न्यायदर्शन की मान्यता के समर्थक रहे हैं, अर्थात् न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य - सभी पाँचों इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं, अतः इस सम्बन्ध में जैन-दार्शनिकों द्वारा की गई न्याय-दर्शन की समीक्षा इन सभी दर्शनों पर भी लागू हो जाती है। पुनः, यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन-दार्शनिक भी चक्षु के अतिरिक्त अन्य चारों इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं, अतः एक ओर उन्होंने नैयायिक आदि की समीक्षा मात्र चक्षु की प्राप्यकारिता के सम्बन्ध में की है, तो दूसरी ओर, बौद्धों की श्रोत्रेन्द्रिय की अप्राप्यकारिता की भी समीक्षा की है। यहाँ हम सर्वप्रथम चक्षु की प्राप्यकारिता की समीक्षा करेंगे, फिर . श्रोत्रेन्द्रिय की अप्राप्यकारिता की समीक्षा करेंगे। चक्षुरिन्द्रिय की प्राप्यकारिता के सम्बन्ध में नैयायिकों की मान्यता यह है कि चक्षुरिन्द्रिय के विषय स्वयं आकर तो चक्षुरिन्द्रिय का संस्पर्श नहीं करते हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय से तैजस निकलकर चक्षुरिन्द्रिय के विषयों का संस्पर्श कर उन्हें जानती हैं। इस पर जैनों की प्रथम आपत्ति यह है कि तैजस चक्षु से निकलकर जाता हुआ दिखाई नहीं देता है, दूसरे, यदि चक्षु प्राप्यकारी है, तो वह एक साथ पर्वत, चन्द्र आदि अनेक विषयों का संस्पर्श कैसे कर सकती है। तीसरे, यदि चक्षुरिन्द्रिय प्राप्यकारी है, तो वह अपने आकार से कई गुना बृहदकाय पदार्थों, यथा- पर्वत आदि का संस्पर्श कैसे कर सकती है ? नैयायिकों ने जैनों के इन तीनों आक्षेपों का उत्तर इस क्रम में प्रस्तुत किया है कि प्रथम तो चक्षु से जो तैजस निकलकर चक्षुरिन्द्रिय के विषयों का संस्पर्श करता है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष-प्रमाण से नहीं हो सकता है, क्योंकि उस तैजस में रूप अनुभूत है, अर्थात् वह अमूर्त है, अतः उसका ज्ञान अनुमान-प्रमाण से होता है। इस पर जैनों का