________________ जैन धर्म एवं दर्शन-345 जैन ज्ञानमीमांसा-53 सर्वाथसिद्धि, राजवार्त्तिक, पंचसंग्रह (प्राकृत), धवला, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि में भी यह चर्चा मिलती है। इससे यह फलित होता है कि जैन-दर्शन में यह चर्चा ईसा की प्रथम शती से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शती तक पूरे जोर-शोर से चलती रही है। जहाँ प्रज्ञापनासूत्र, पंचसग्रह (प्राकृत) आदि में मात्र इतना ही कहा गया है कि श्रवणेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय- ये चार इन्द्रियाँ अपने-अपने स्पर्शित विषयों का ही अनुभव करती हैं, जबकि चक्षुरिन्द्रिय अस्पर्शित रूप को देखती है, वहाँ परवर्तीकाल के जैन-दर्शन के ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा भी की गई है। ज्ञातव्य है कि प्रज्ञापना-सूत्र के इन्द्रिय-पद में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि श्रवणेन्द्रिय प्रविष्ट शब्दों को सुनती है या अप्रविष्ट शब्दों को सुनती है। इसके उत्तर में कहा गया है कि श्रवणेन्द्रिय प्रविष्ट शब्दों को ही सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं सुनती है। श्रवणेन्द्रिय के समान ही घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय भी अपने-अपने प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करती हैं। प्रज्ञापनासूत्र की मलयगिरि की वृत्ति में (13 वीं शती) स्पृष्ट और प्रविष्ट का अन्तर बताते हुए भी कहा गया है कि जैसे शरीर पर रेत या धूल-कण लगते हैं, उसी तरह इन्द्रिय का अपने विषय के साथ मात्र संस्पर्श हो, तो वह विषय स्पृष्ट (स्पर्शित) कहलाता है, जबकि वे विषय, जो इन्द्रिय के प्रदेशों के साथ एकाकार होते हैं, उनमें प्रवेश करते हैं, तो वे बद्ध और प्रविष्ट कहलाते हैं। उदाहरण के रूप में, किसी खाद्य-पदार्थ का रसनेन्द्रिय से स्पर्शित होना स्पृष्ट है, किन्तु उस पदार्थ के रस का हमारे स्वाद-कोषों से एकाकार होना - वह बद्ध या प्रविष्ट होना है। जैनदर्शन की यहाँ यह मान्यता है कि चारों इन्द्रियाँ अपने स्पृष्ट, बद्ध और प्रविष्ट विषयों को ही जानती हैं, परन्तु चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट, अबद्ध और अप्रविष्ट विषयों को जानती है। यहाँ हम देखते हैं कि आगम-युग तक या सर्वार्थसिद्धि के काल तक जैन आचार्यों का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में अपने पक्ष का प्रस्तुतिकरण मात्र रहा है, अन्य मतों की समीक्षा नहीं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक-टीका (आठवीं शती), प्रमाणनयतत्त्वालोक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका (सभी प्रायः 11