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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-344 जैन ज्ञानमीमांसा-52 जैनदर्शन के अनुसार, चक्षुरिन्द्रिय के विषय न तो स्वयं चक्षुरिन्द्रिय से संस्पर्श करते हैं और न चक्षु अपने स्वक्षेत्र से बाहर जाकर उनका संस्पर्श करती हैं। वस्तुतः, चक्षुरिन्द्रिय में ऐसी असाधारण सामर्थ्य है कि वह बिना संस्पर्श किये अपने विषयों को जान लेती हैं, इसलिए जैनदर्शन पाँचों इन्द्रियों में से चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी और चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानता है। परवर्ती जैन आचार्यों (6 वीं से 10 वीं शती) ने अपनी मान्यता के समर्थन में बौद्धों और नैयायिकों की तत्सम्बन्धी अवधारणाओं की समीक्षा भी की है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र मूल (ई. सन् -3 री शती) में इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व को लेकर कोई चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु उसी के समकालिक या किंचित् पूर्ववर्ती प्रज्ञापनासूत्र (ई. सन् प्रथम-द्वितीय शती) नामक उपांग के इन्द्रियद्वार में इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व की चर्चा सर्वप्रथम उपलब्ध होती है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी तत्त्वार्थसूत्र की प्रथम टीका सर्वार्थसिद्धि (लगभग पाँचवीं शती) में सर्वप्रथम यह चर्चा मिलती है। प्रज्ञापनासूत्र के इन्द्रिय-पद में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि श्रवणेन्द्रिय स्पृष्ट अर्थात् संस्पर्शित शब्दों को सुनती है या अस्पृष्ट (अस्पर्शित) शब्दों को सुनती है ? उसके उत्तर में कहा गया है कि श्रवणेन्द्रिय स्पृष्ट शब्दों को सुनती है, किन्तु जब चक्षुरिन्द्रिय के सम्बन्ध में यही प्रश्न पूछा गया कि चक्षुरिन्द्रिय स्पृष्ट रूप को देखती है या अस्पृष्ट रूप को देखती है, तो उसके उत्तर में कहा गया है कि चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है, स्पृष्ट रूप को नहीं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि इन्द्रियों के अप्राप्यकारित्व और प्राप्यकारित्व की चर्चा के मूलबीज जैनदर्शन में कम-से-कम प्रज्ञापनासूत्र के काल से अर्थात् ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर–परम्परा में सर्वार्थसिद्धि टीका में प्रज्ञापना के समरूप आगम-वचनों को उद्धृत करते हुए चक्षुरिन्द्रिय की अप्राप्यकारिता और अन्य इन्द्रियों की प्राप्यकारिता सिद्ध की गई है। प्रज्ञापना के अतिरिक्त श्वेताम्बर-परम्परा के अन्य दार्शनिक ग्रन्थों, यथा - प्रमाणनयतत्त्वालोक, रत्नाकरावतारिका, स्याद्वादरत्नाकर आदि में तथा दिगम्बर-परम्परा के अनेक ग्रन्थों, यथा
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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