________________ जैन धर्म एवं दर्शन-343 जैन ज्ञानमीमांसा-51 प्राप्यकारी मानता है और श्रवणेन्द्रिय तथा चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानता है, अर्थात् श्रवणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय दूर से ही अपने विषय का ग्रहण कर लेती हैं। उनका अपने विषयों से वास्तविक संस्पर्श या सन्निकर्ष नहीं होता है। जहाँ तक जैन-दर्शन का प्रश्न है, वह स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और श्रवणेन्द्रिय - इन चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानता है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय और मन को अप्राप्यकारी मानता है। जैन-दर्शन के अनुसार, चक्षुरिन्द्रिय और मन अप्राप्यकारी हैं, क्योंकि ये दोनों अपने विषयों का संस्पर्श करके उन्हें ग्रहण नहीं करते हैं, अपितु दूर से ही अपने विषयों को जान लेते हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि इन्द्रिय के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व को लेकर जैनदर्शन का न्यायदर्शन और बौद्धदर्शन-दोनों से ही मतभेद है। जहाँ न्यायदर्शन पाँचों ही इन्द्रियों को नियम से प्राप्यकारी मानता है, वहाँ जैनदर्शन चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानता है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानता है। इसी सन्दर्भ में जब हम बौद्ध-दर्शन से जैन-दर्शन की तुलना करते हैं, तो यह पाते हैं कि जहाँ बौद्धदर्शन श्रवणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय-दोनों को अप्राप्यकारी मानता है, वहाँ जैनदर्शन श्रवणेन्द्रिय को प्राप्यकारी मानता है और मात्र चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानता है। पुनः, इस प्रश्न को लेकर भी जैन-दर्शन का न्याय-दर्शनं से दूसरा मतभेद यह भी है कि न्यायदर्शन यह मानता है कि चक्षुरिन्द्रिय के विषय स्वयं आकर चक्षुरिन्द्रिय का संस्पर्श नहीं करते, अपितु चक्षुरिन्द्रिय से तेजोरश्मियाँ निकलकर उनसे संस्पर्श करती हैं, जबकि जैनदर्शन का कहना है कि कोई भी इन्द्रिय अपने स्वक्षेत्र से बाहर जाकर विषय-संस्पर्श नहीं करती है, अपितु जो विषय इन्द्रियों के संस्पर्श-क्षेत्र में आते हैं, उन्हें ही जानती है और ऐसी इन्द्रियाँ ही प्राप्यकारी कही जा सकती हैं, जबकि जो इन्द्रियाँ अपने स्वक्षेत्र में रहते हुए भी दूरस्थ विषयों को ग्रहण कर लेती हैं, वे अप्राप्यकारी कहलाती हैं। जैनदर्शन के अनुसार; स्पर्श, रस, गन्ध और शब्द ऐसे विषय हैं, जिनका ज्ञान उनकी ग्राहक चारों इन्द्रियाँ संस्पर्श करके करती हैं, अतः वे प्राप्यकारी कही जाती हैं। इसके विपरीत, चक्षुरिन्द्रिय दूर से ही अपने विषय का ग्रहण कर लेती है, अतः वह अप्राप्यकारी कही जाती है।