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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-342 जैन ज्ञानमीमांसा-50 संस्पर्श होता है, या वे दूर से ही उन्हें ग्रहण कर लेती हैं। जहाँ तक न्यायदर्शन का प्रश्न है, वह यह मानता है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से वास्तविक रूप में संस्पर्श या सन्निकर्ष होता है और तभी वे उसे जानती हैं। दूसरे शब्दों में, पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से यथार्थ सम्पर्क स्थापित करके अर्थात् उनका संस्पर्श करके ही उन्हें जानती हैं, जबकि जैन और बौद्ध-दर्शन यह मानते हैं कि कुछ इन्द्रियाँ तो अपने विषयों का संस्पर्श करके ही उन्हें जानती हैं, किन्तु कुछ इन्द्रियाँ ऐसी भी हैं, जो दूर से ही अपने विषयों का ग्रहण कर लेती हैं, उनका वास्तविक रूप से संस्पर्श नहीं करती हैं। इसके साथ ही, भारतीय-दार्शनिकों में विशेष रूप से जैन और बौद्ध-दार्शनिकों ने यहाँ यह प्रश्न भी उठाया कि सम्पर्क-स्थापन, संस्पर्शन या सन्निकर्ष की इस प्रक्रिया में विषय इन्द्रियों की ओर आकर उनसे सम्पर्क स्थापित करते हैं या इन्द्रियाँ अपने विषय की ओर जाकर उनसे सम्पर्क स्थापित करती हैं, या उनका संस्पर्श करती हैं ? जहाँ तक न्यायदर्शन की मान्यता है, तो कुछ स्थितियों में विषय इन्द्रियों के सन्निकट आकर उनसे सम्पर्क स्थापित करते हैं, जैसे- गन्ध और कुछ स्थितियों में इन्द्रियाँ भी उन विषयों के सन्निकट जाकर उनसे सम्पर्क स्थापित करती हैं, जैसे - चक्षुरिन्द्रिय। बस, यहीं से इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व को लेकर भारतीय दार्शनिक-चिन्तन में विवाद का प्रारम्भ होता है। प्राप्यकारित्व वह सिद्धान्त है, जो यह मानता है कि इन्द्रियाँ अपने विषय का वास्तविक रूप से संस्पर्श करके या उससे सम्पर्क स्थापित करके सन्निकर्ष के माध्यम से उसे ग्रहण करती हैं, जबकि इन्द्रियों का अप्राप्यकारित्व वह सिद्धान्त है, जो यह मानता है कि कुछ इन्द्रियाँ ऐसी भी हैं, जो अपने विषयों से दूरस्थ रहकर ही उनका ग्रहण कर लेती हैं, उनमें वास्तविक रूप से संस्पर्श, सम्पर्क या सन्निकर्ष नहीं होता है। जैन-दर्शन में इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व की अवधारणा भारतीय-दर्शनों में न्यायदर्शन पाँचों इन्द्रियों और मन को प्राप्यकारी मानता है, जबकि बौद्ध-दर्शन स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय को
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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