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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-341 जैन ज्ञानमीमांसा -49 के रूप में वर्णित हैं। द्रव्य-इन्द्रिय इन्द्रिय की शारीरिक-संरचना है और भाव-इन्द्रिय ऐन्द्रिक क्षमता की परिचायक है। जैन आचार्यों ने द्रव्य-इन्द्रिय के उपकरण और निवृत्ति- ऐसे दो विभाग किये हैं। इन्द्रिय का कार्य करने वाला अंग उपकरण और इन्द्रियरक्षक अंग निवृत्ति कहा जाता है। इन दोनों के भी अतरंग और बैयरंग-ऐसे दो-दो विभाग किये गये हैं। पुनः, भावेन्द्रिय को दो भागों में बाटा गया है - लब्धि और उपयोग / प्रत्येक इन्द्रिय की जो ज्ञान-क्षमता है, वह लब्धि कही जाती है और उस इन्द्रिय की अपने विषय के प्रति जो संचेतना होती है, उसे उपयोग कहते हैं। जैन-दर्शन में इन्द्रियों के विषय- (1) श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द तीन प्रकार का माना गया है- जीव-शब्द, अजीव-शब्द और मिश्र-शब्द / कछ विचारक 7 प्रकार के शब्द भी मानते हैं। (2) चक्ष-इन्द्रिय का विषय रूप-संवेदना है। रूप पाँच प्रकार का है- काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत, शेष रंग इन्हीं के सम्मिश्रण के परिणाम हैं। (3) घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध-संवेदना है। गन्ध दो प्रकार की है- 1. सुगन्ध और 2. दुर्गन्ध / (4) रसना का विषय रसास्वादन है। रस पाँच हैं - कटु, अम्ल, लवण, तिक्त और मधुर। (5) स्पर्शन-इन्द्रिय का विषय स्पर्शानुभूति है। स्पर्श आठ प्रकार का है- उष्ण, शीत, रूक्ष, चिकना, हल्का, भारी, कर्कश, कोमल / इस प्रकार, श्रोत्रेन्द्रिय के 3, चक्षुरिन्द्रिय के 5, घ्राणेन्द्रिय के 2, रसना के 5 और स्पर्शेन्द्रिय के 8, कुल मिलाकर पाँचों इन्द्रियों के तेईस विषय हैं। इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व का स्वरूप जैनदर्शन के अनुसार, सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष में निमित्त-कारण मन और इन्द्रियां हैं, अतः यहाँ मूल प्रश्न यह है कि इन्द्रियां अपने विषय का ज्ञान किस प्रकार से करती हैं। भारतीय-दर्शनों में जहाँ तक न्यायदर्शन का प्रश्न है, वह स्पष्ट रूप से यह मानता है कि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का संस्पर्श या सन्निकर्ष करके ही उन्हें जानती हैं। यह सिद्धान्त इन्द्रियार्थ-सन्निकर्षवाद या इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व के सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। यह बात तो सामान्यतया सभी स्वीकार करते हैं कि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करके ही उन्हें जानती हैं, किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या इन्द्रियों का अपने विषयों से निकटस्थ रूप में
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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